श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 18: ब्राह्मण बालक द्वारा महाराज परीक्षित को शाप  »  श्लोक 44
 
 
श्लोक  1.18.44 
तदद्य न: पापमुपैत्यनन्वयं
यन्नष्टनाथस्य वसोर्विलुम्पकात् ।
परस्परं घ्नन्ति शपन्ति वृञ्जते
पशून् स्त्रियोऽर्थान् पुरुदस्यवो जना: ॥ ४४ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—इस कारण से; अद्य—आज से; न:—हम पर; पापम्—पाप का फल; उपैति—चढ़ेगा; अनन्वयम्—विघ्न; यत्— क्योंकि; नष्ट—नष्ट होने पर; नाथस्य—राजा का; वसो:—सम्पत्ति का; विलुम्पकात्—लूटा जाकर; परस्परम्—एक दूसरे से; घ्नन्ति—मारेगा; शपन्ति—हानि पहुँचायेगा; वृञ्जते—चुरायेगा; पशून्—पशुओं को; स्त्रिय:—स्त्रिर्यां; अर्थान्—धन को; पुरु— अत्यधिक; दस्यव:—चोर; जना:—लोगों का समूह ।.
 
अनुवाद
 
 राजा की शासन-प्रणाली के समाप्त होने तथा धूर्तों एवं चोरों द्वारा लोगों की सम्पत्ति लुटने के कारण बड़े-बड़े सामाजिक विघ्न आयेंगे; लोग हताहत किये जायेंगे; पशु तथा स्त्रियाँ चुराई जायेंगी और इन सारे पापों के उत्तरदायी होंगे हम सब।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में न:(हम) शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। राजतंत्रीय शासन का अन्त करने के लिए ब्राह्मणों को एक समुदाय के रूप में जिम्मेदार बताकर मुनि ठीक ही कर रहे हैं और इस प्रकार जो तथाकथित प्रजातंत्रियों को अवसर दिया जा रहा है, जो सामान्यतया राज्य की जनता की सम्पत्ति के लुटेरे होते हैं। ये तथाकथित प्रजातंत्री लोग जनता की सम्पन्नता का उत्तरदायित्व लिए बिना प्रशासनिक तंत्र को हथिया लेते हैं। सारे व्यक्ति निजी तृप्ति के लिए पद हथिया लेते हैं और इस तरह एक राजा के स्थान पर, जनता से कर वसूलने कई राजा बन जाते हैं। यहाँ यह भविष्यवाणी की गई है कि अच्छी राजकीय सरकार के न होने से, प्रत्येक व्यक्ति धन, पशु, स्त्रियों इत्यादि को लूट कर अन्यों के लिए विघ्न खड़े करता रहेगा।
 
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