तिर:-कृता:—अपमानित होकर; विप्रलब्धा:—ठगा जाकर; शप्ता:—शापित होकर; क्षिप्ता:—उपेक्षा के कारण विचलित; हता:—अथवा मारे जाने पर; अपि—भी; न—कभी नहीं; अस्य—इन कृत्यों के लिए; तत्—उनको; प्रतिकुर्वन्ति—प्रतीकार होते हैं; तत्—भगवान् को; भक्ता:—भक्तगण; प्रभव:—शक्तिमान; अपि—यद्यपि; हि—निश्चय ही ।.
अनुवाद
भगवान् के भक्त इतने सहिष्णु होते हैं कि अपमानित होने, ठगे जाने, शापित होने, विचलित किये जाने, उपेक्षित होने अथवा जान से मारे जाने पर भी कभी बदला लेने का विचार नहीं करते।
तात्पर्य
ऋषि शमीक यह भी जानते थे कि भगवान् उस व्यक्ति को क्षमा नहीं करते जो भक्त के चरणों पर अपराध करता है। भगवान् इतना ही आदेश दे सकते हैं कि भक्त की शरण ग्रहण करो। उन्होंने मन में सोचा कि यदि महाराज परीक्षित बदले में शाप दे दें, तो बालक को बचाया जा सकता है। लेकिन वे यह भी जानते थे कि शुद्ध भक्त सांसारिक लाभों या हानियों के प्रति लापरवाह होता है। अतएव भक्तगण कभी भी निजी अपयश, शाप या उपेक्षा इत्यादि का बदला नहीं लेते। जहाँ तक ऐसी बातों का सम्बन्ध है, भक्तगण निजी मामलों में उनकी परवाह नहीं करते। किन्तु यदि ऐसी चीजें भगवान् तथा भगवद्भक्तों के विरुद्ध की जाती हैं, तो भक्तगण बहुत कठोर कार्यवाही करते हैं। चूँकि यह निजी मामला था, अतएव शमीक ऋषि को पता था कि राजा इसका बदला नहीं लेंगे। अतएव अप्रौढ़ बालक के लिए भगवान् से याचना करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प न था।
ऐसा नहीं है कि केवल ब्राह्मण ही अपने अधीनों को शाप देने या आशीर्वाद देने में सक्षम होते हैं; भगवद्भक्त, चाहे वह ब्राह्मण न भी हो, तो भी ब्राह्मण से अधिक शक्तिशाली होता है। लेकिन शक्तिशाली भक्त कभी अपने लाभ के लिए शक्ति का दुरुपयोग नहीं करता। भक्त की जितनी भी शक्ति होती है, वह भगवान् तथा उसके भक्तों की सेवा में ही लगती है।
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