सामान्यतया अध्यात्मवादी अन्यों द्वारा संसार के द्वन्द्वों में लगाये जाने पर भी व्यथित नहीं होते। न ही वे (सांसारिक वस्तुओं में) आनन्द लेते हैं, क्योंकि वे अध्यात्म में लगे रहते हैं।
तात्पर्य
अध्यात्मवादी-जन ज्ञानी, योगी तथा भगवद्भक्त होते हैं। ज्ञानियों का लक्ष्य ब्रह्म में तदाकार होने की सिद्धि प्राप्त करना होता है, योगी सर्वव्यापी परमात्मा की अनुभूति करना चाहते हैं और भक्तगण भगवान् के व्यक्तित्व की दिव्य प्रेममयी सेवा में लगे रहते हैं। चूँकि ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् एक ही दिव्यता की विभिन्न अवस्थाएँ हैं, अतएव ये सारे अध्यात्मवादी प्रकृति के तीनों गुणों से परे होते हैं। भौतिक सुख-दुख तीनों गुणों के प्रतिफल हैं, अतएव ऐसे सुखों-दुखों के कारणों से अध्यात्मवादियों को कोई सरोकार नहीं रहता। राजा भक्त थे और ऋषि योगी थे। अतएव दोनों ही परमात्मा की इच्छा से उत्पन्न हुई इस दुर्घटना से अलिप्त थे। खेलने की उम्र वाला बालक भगवान् की इच्छापूर्ति में निमित्त मात्र था।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के अन्तर्गत ‘ब्राह्मण बालक द्वारा महाराज परीक्षित को शाप’ नामक अठारहवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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