किं नु बालेषु शूरेण कलिना धीरभीरुणा ।
अप्रमत्त: प्रमत्तेषु यो वृको नृषु वर्तते ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
किम्—क्या; नु—हो सकता है; बालेषु—अल्पज्ञों में से; शूरेण—शक्तिमान; कलिना—कलि द्वारा; धीर—आत्म-संयमी; भीरुणा—डरपोक के द्वारा; अप्रमत्त:—सतर्क; प्रमत्तेषु—लापरवाहों में; य:—जो; वृक:—बाघ; नृषु—मनुष्यों में; वर्तते— विद्यमान है ।.
अनुवाद
महाराज परीक्षित ने विचार किया कि अल्पज्ञ मनुष्य कलि को अत्यन्त शक्तिशाली मान सकते हैं, किन्तु जो आत्मसंयमी हैं, उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं है। राजा बाघ के समान शक्तिमान थे और मूर्ख, लापरवाह मनुष्यों की रखवाली करते थे।
तात्पर्य
जो भगवान् के भक्त नहीं हैं, वे लापरवाह तथा मन्दर्बद्धि होते हैं। जब तक कोई पूरी तरह बुद्धिमान न हो, वह भगवद्भक्त नहीं हो सकता। जो भगवद्भक्त नहीं हैं, वे कलि के कार्यों के शिकार बन जाते हैं। जब तक हम महाराज परीक्षित द्वारा अपनाई गई कार्य-पद्धति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो जाते, तब तक समाज में श्रेष्ठतर परिस्थिति ला पाना सम्भव नहीं है। और यह कार्य-पद्धति है, भगवान् की भक्तिमय सेवा का प्रचार करना।
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