हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 19: शुकदेव गोस्वामी का प्रकट होना  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  1.19.1 
सूत उवाच
महीपतिस्त्वथ तत्कर्म गर्ह्यं
विचिन्तयन्नात्मकृतं सुदुर्मना: ।
अहो मया नीचमनार्यवत्कृतं
निरागसि ब्रह्मणि गूढतेजसि ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
सूत: उवाच—सूत गोस्वामी ने कहा; मही-पति:—राजा; तु—लेकिन; अथ—इस प्रकार (घर वापस आते समय); तत्—उस; कर्म—कार्य; गर्ह्यम्—घृणित; विचिन्तयन्—इस प्रकार सोचते हुए; आत्म-कृतम्—अपने द्वारा किया हुआ; सु-दुर्मना:— अत्यन्त अनमना, उदास; अहो—अहो; मया—मेरे द्वारा; नीचम्—जघन्य; अनार्य—असंस्कृत, असभ्य; वत्—सदृश; कृतम्— किया गया; निरागसि—निर्दोष; ब्रह्मणि—ब्राह्मण के प्रति; गूढ—गम्भीर; तेजसि—शक्तिमान ।.
 
अनुवाद
 
 श्री सूत गोस्वामी ने कहा : घर लौटाते हुए राजा (महाराज परीक्षित) ने अनुभव किया कि उन्होंने निर्दोष तथा शक्तिमान ब्राह्मण के प्रति अत्यन्त जघन्य तथा अशिष्ट व्यवहार किया है। फलस्वरूप वे अत्यन्त उद्विग्न थे।
 
तात्पर्य
 शक्तिमान एवं निर्दोष ब्राह्मण के साथ अपने आकस्मिक अभद्र व्यवहार से पवित्र राजा अत्यन्त दुखी हुए। ऐसा पश्चात्ताप राजा जैसे उत्तम व्यक्ति के लिए स्वाभाविक है और ऐसे पश्चात्ताप से भक्त आकस्मिक किए हुए पापों से उबर जाता है। भक्तगण स्वभावत: दोषरहित होते हैं। भक्त द्वारा होनेवाले आकस्मिक पापों के लिए खेद प्रकट किया जाता है और भगवत्कृपा से ऐसे अनिच्छित पाप पश्चात्ताप की अग्नि में जलकर भस्म हो जाते हैं।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥