जब सारे ऋषियों तथा अन्य लोगों ने सुखपूर्वक आसन ग्रहण कर लिया, तो उनके समक्ष हाथ जोडक़र खड़े हुए राजा ने आमरण व्रत करने का अपना संकल्प बतलाया।
तात्पर्य
यद्यपि राजा ने पहले ही गंगा तट पर उपवास करने का निश्चय कर लिया था, किन्तु वहाँ पर उपस्थित महापुरुषों का अभिमत जानने के लिए नियमपूर्वक अपना निर्णय व्यक्त किया। कोई भी निर्णय कितना भी महत्त्वपूर्ण क्यों न हो, किसी न किसी अधिकारी द्वारा पुष्ट होना चाहिए। इससे बात पक्की हो जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि उन दिनों जो राजा पृथ्वी पर शासन करते थे, वे गैर जिम्मेदार तानाशाह नहीं होते थे। वे वैदिक आदेशों के अनुसार सन्तों तथा मुनियों के प्रामाणिक निर्णयों का पालन करते थे। एक पूर्ण राजा के रूप में महाराज परीक्षित ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक आचार्यों की सलाह लेकर नियमों का पालन किया।
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