मैं आप समस्त ब्राह्मणों को पुन: नमस्कार करके यही प्रार्थना करता हूँ कि यदि मैं इस भौतिक जगत में फिर से जन्म लूँ, तो अनन्त भगवान् कृष्ण के प्रति मेरी पूर्ण आसक्ति हो, उनके भक्तों की संगति प्राप्त हो और समस्त जीवों के साथ मैत्री-भाव रहे।
तात्पर्य
महाराज परीक्षित ने यहाँ पर यह बताया है कि भगवद्भक्त ही एकमात्र परिपूर्ण जीव होता है। भगवद्भक्त किसी का शत्रु नहीं होता, भले ही उसके अनेक शत्रु हों। भगवद्भक्त अभक्तों की संगति में नहीं रहना चाहता, यद्यपि उनसे उसकी शत्रुता नहीं होती। वह भगवद्भक्तों की ही संगति चाहता है। यह सर्वथा स्वाभाविक है, क्योंकि समान विचारकों में ही मैत्री सम्भव है। और भक्त का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है, समस्त जीवों के पिता भगवान् श्रीकृष्ण में पूर्ण अनुरक्ति। जिस प्रकार एक पिता का अच्छा बेटा अपने समस्त भाइयों से मित्रवत् आचरण करता है, उसी तरह भगवद्भक्त, परम पिता भगवान् श्रीकृष्ण का अच्छा बेटा होने के कारण, अन्य समस्त जीवों को अपने परम पिता से सम्बन्धित देखता है। वह अपने पिता के उद्दंड पुत्रों को सभ्य बनाकर उनसे ईश्वर के परम पितृत्व को स्वीकार कराने का प्रयास करता है। महाराज परीक्षित निश्चित रूप से भगवद्धाम वापस जा रहे थे, किन्तु यदि उन्हें न भी जाना होता, तो भी उन्होंने जिस तरह के जीवन के लिए प्रार्थना की, वह भौतिक जगत के लिए परम पूर्ण विधि है। शुद्ध भक्त कभी ब्रह्मा जैसे महापुरुषों का साथ भी नहीं चाहता है, उसे तो क्षुद्र जीव की भी संगति पसन्द है, बशर्ते कि वह भगवद्भक्त हो।
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