महर्षयो वै समुपागता ये
प्रशस्य साध्वित्यनुमोदमाना: ।
ऊचु: प्रजानुग्रहशीलसारा
यदुत्तमश्लोकगुणाभिरूपम् ॥ १९ ॥
शब्दार्थ
महर्षय:—महर्षिगण; वै—सचमुच; समुपागता:—वहाँ एकत्रित; ये—जो; प्रशस्य—प्रशंसा करके; साधु—बहुत अच्छा; इति—इस प्रकार; अनुमोदमाना:—अनुमोदित करते हुए; ऊचु:—कहा; प्रजा-अनुग्रह—जीवों का कल्याण करने; शील सारा:—गुणात्मक रूप से शक्तिमान; यत्—क्योंकि; उत्तम-श्लोक—चुने हुए श्लोकों से प्रशंसित; गुण-अभिरूपम्—दैवी गुणों के समान सुन्दर ।.
अनुवाद
वहाँ पर एकत्र हुए सारे ऋषियों ने भी महाराज परीक्षित के निर्णय को सराहा और “बहुत अच्छा (साधु-साधु)” कहकर उन्होंने अपना अनुमोदन व्यक्त किया। स्वभावत: मुनिगण सामान्य लोगों का कल्याण करने के लिए उन्मुख रहते हैं, क्योंकि उनमें परमेश्वर के सारे गुण पाये जाते हैं। अतएव वे भगवान् के भक्त महाराज परीक्षित को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले।
तात्पर्य
भक्ति मय सेवा का पद प्राप्त करने पर जीव का प्राकृतिक सौन्दर्य बढ़ जाता है। महाराज परीक्षित भगवान् कृष्ण की आसक्ति में लीन थे। यह देखकर वहाँ पर एकत्र सारे ऋषि अत्यन्त प्रसन्न थे। उन्होंने ‘साधु-साधु’ कहकर अपनी ओर से अनुमोदन किया। ऐसे ऋषि सामान्य लोगों का कल्याण चाहते रहते हैं और जब वे महाराज परीक्षित जैसे महानुभाव को भक्ति-पथ पर अग्रसर होते देखते हैं, तो उनके हर्ष की सीमा नहीं रहती और वे अपनी शक्ति में जो हैं, वे सब आशीर्वाद देते हैं। भगवद्भक्ति इतनी शुभ है कि सारे देवता तथा ऋषि, यहाँ तक कि स्वयं भगवान् भी भक्त से प्रसन्न हो जाते हैं, इसीलिए भक्त को प्रत्येक वस्तु शुभ दिखती है। प्रगतिशील भक्त के मार्ग से सारी अशुभ बातें हटा ली जाती हैं। मृत्यु के समय महर्षियों से भेंट निश्चय ही महाराज परीक्षित के लिए शुभ थी और इस तरह वे ब्राह्मण बालक के तथाकथित शाप से धन्य हो गये।
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