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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 19: शुकदेव गोस्वामी का प्रकट होना  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  1.19.2 
ध्रुवं ततो मे कृतदेवहेलनाद्
दुरत्ययं व्यसनं नातिदीर्घात् ।
तदस्तु कामं ह्यघनिष्कृताय मे
यथा न कुर्यां पुनरेवमद्धा ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
ध्रुवम्—निश्चित; तत:—अतएव; मे—मेरा; कृत-देव-हेलनात्—भगवान् की आज्ञाओं का उल्लंघन करने से; दुरत्ययम्— अत्यन्त कठिन; व्यसनम्—विपत्ति; —नहीं; अति—अत्यधिक; दीर्घात्—दूर; तत्—वह; अस्तु—ऐसा हो; कामम्—बिना हिचक की इच्छा; हि—निश्चय ही; अघ—पाप; निष्कृताय—मुक्त होने के लिए; मे—मेरा; यथा—जिससे; —कभी नहीं; कुर्याम्—करूँगा; पुन:—फिर; एवम्—जैसे मैंने किया है; अद्धा—प्रत्यक्ष रीति से ।.
 
अनुवाद
 
 [राजा परीक्षित ने सोचा :] भगवान् के आदेशों की अवहेलना करने से मुझे आशंका है कि निश्चित रूप से निकट भविष्य में मेरे ऊपर कोई संकट आनेवाला है। अब मैं बिना हिचक के कामना करता हूँ कि वह संकट अभी आ जाय, क्योंकि इस तरह मैं पापपूर्ण कर्म से मुक्त हो जाऊँगा और फिर ऐसा अपराध नहीं करूँगा।
 
तात्पर्य
 परमेश्वर का आदेश है कि ब्राह्मणों तथा गायों को सम्पूर्ण संरक्षण प्रदान किया जाय। भगवान् स्वयं ब्राह्मणों तथा गायों की भलाई करने के इच्छुक रहते हैं (गो-ब्राह्मण-हिताय च )। महाराज परीक्षित यह सब जानते थे, अतएव उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि उनके द्वारा एक तेजस्वी ब्राह्मण का इस तरह अपमानित किया जाना निश्चित रूप से भगवान् के नियमों के विरुद्ध था और वे निकट के भविष्य में किसी घोर संकट की आशंका कर रहे थे। अतएव वे चाह रहे थे कि जो कुछ होना है, वह उन्हें तुरन्त हो ले, किन्तु उनके परिवारवालों को कुछ न हो। मनुष्य का दुर्व्यवहार उसके पूरे परिवार के सदस्यों को प्रभावित करता है। इसीलिए महाराज परीक्षित ने कामना की कि विपत्ति अकेले उन्हीं पर आये। वे स्वयं कष्ट भोगकर भावी पापों से बच जायेंगे और साथ ही, उन्होंने जो पाप किया है, उसका निराकरण हो जायेगा जिससे उनके वंशजों को कष्ट नहीं भोगना पड़ेगा। एक जिम्मेदार भक्त इसी प्रकार से सोचता है। भक्त के परिवार के सदस्य भी भक्त द्वारा भगवान् की सेवा के प्रभावों का लाभ उठाते हैं। महाराज प्रह्लाद ने अपनी भक्तिमय सेवा से अपने असुर पिता को बचाया था। परिवार में भक्त सन्तान का होना भगवान् का सबसे बड़ा वरदान है।
 
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