श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 19: शुकदेव गोस्वामी का प्रकट होना  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  1.19.23 
समागता: सर्वत एव सर्वे
वेदा यथा मूर्तिधरास्त्रिपृष्ठे ।
नेहाथ नामुत्र च कश्चनार्थ
ऋते परानुग्रहमात्मशीलम् ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
समागता:—एकत्रित; सर्वत:—सभी दिशाओं से; एव—निश्चय ही; सर्वे—आप सब; वेदा:—परम ज्ञान; यथा—जैसे; मूर्ति धरा:—मूर्तिमंत; त्रि-पृष्ठे—ब्रह्मा के लोक में (जो उर्ध्व, मध्य तथा अधो तीनों लोकों के ऊपर स्थित है); न—नहीं; इह—इस संसार में; अथ—तत्पश्चात्; न—न तो; अमुत्र—अन्य जगत में; च—भी; कश्चन—अन्य कोई; अर्थ:—हित, स्वार्थ; ऋते—के अतिरिक्त; पर—अन्य; अनुग्रहम्—कृपा; आत्म-शीलम्—अपना स्वभाव ।.
 
अनुवाद
 
 राजा ने कहा : हे महर्षियों, आप ब्रह्माण्ड के कोने-कोने से आकर यहाँ पर कृपापूर्वक एकत्र हुए हैं। आप सभी परम ज्ञान के मूर्तिमंत स्वरूप हैं, जो तीनों लोकों के ऊपर के लोक (सत्यलोक) का वासी है। फलस्वरूप आपकी स्वाभाविक प्रवृत्ति अन्यों का कल्याण करने की है और इसके अतिरिक्त इस जीवन में या अगले जीवन में आपकी अन्य कोई रूचि नहीं है।
 
तात्पर्य
 छह प्रकार के ऐश्वर्य हैं—सम्पत्ति, बल, यश, सौन्दर्य, ज्ञान तथा वैराग्य। ये सब मूलत: भगवान् के गुण हैं। परम पुरुष के अंश रूप जीवों में ये सारे गुण आंशिक रूप से, अधिक से अधिक अठहत्तर प्रतिशत पाये जाते हैं। भौतिक जगत में ये गुण (भगवान् के गुणों के १८% तक) भौतिक शक्ति द्वारा उसी प्रकार ढके रहते हैं, जिस प्रकार सूर्य बादल से ढका रहता है। मेघों से आच्छन्न सूर्य की शक्ति मूल तेज की तुलना में मन्द रहती है। इसी प्रकार ऐसे गुणों से युक्त जीवों का मूल रंग प्राय: लुप्त रहता है। ब्रह्माण्ड में लोकों के तीन वर्ग हैं, जिनके नाम हैं—अधोलोक, मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक। पृथ्वी के मनुष्य मध्यलोकों के प्रारम्भ में रहते हैं, लेकिन ब्रह्मा जैसे जीव तथा उनके समकालीन जीव ऊर्ध्वलोकों में रहते हैं, जिनमें से सत्यलोक सबसे ऊपर है। सत्यलोक के सारे निवासी वैदिक विद्या में पूर्ण रूप से निष्णात् होते हैं और इस तरह मायारूपी बादल साफ हो जाते हैं। फलस्वरूप वे साक्षात् वेद कहलाते हैं। ऐसे पुरुष संसारी तथा दिव्य दोनों प्रकार के ज्ञान से पूर्ण अवगत होने से संसारी या दिव्य लोकों में कोई रुचि नहीं रखते। वे एक तरह से इच्छारहित भक्त हैं। संसारी जगत में उन्हें कुछ भी प्राप्त करना नहीं रहता और दिव्य जगत में वे स्वयं में पूर्ण रहते हैं। तो फिर वे संसारी जगत में क्यों आते हैं? वे भगवान् के आदेश से विभिन्न लोकों में पतितात्माओं का उद्धार करने के लिए मसीहा (उद्धारकर्ता) के रूप में आते हैं। वे पृथ्वीलोक में आते हैं और विभिन्न परिस्थितियों में लोगों का कल्याण करते हैं। उन्हें इस संसार में भौतिक शक्ति द्वारा प्रवंचित सड़ रहे पतित आत्माओं का उद्धार करने के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य नहीं होता।
 
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