उसी समय व्यासदेव के शक्तिसम्पन्न पुत्र वहाँ प्रकट हुए, जो सम्पूर्ण पृथ्वी पर उदासीन तथा आत्म-तुष्ट होकर विचरण करते रहते थे। उनमें किसी सामाजिक व्यवस्था या जीवन-स्तर (वर्णाश्रम-धर्म) का कोई लक्षण प्रकट नहीं होता था। वे स्त्रियों तथा बच्चों से घिरे थे और इस प्रकार का वेश धारण किये थे, मानों सभी लोगों ने उन्हें उपेक्षित (अवधूत) समझ रखा हो।
तात्पर्य
भगवान् शब्द कभी-कभी शुकदेव गोस्वामी जैसे परमेश्वर के महान् भक्तों के लिए प्रयुक्त होता है। ऐसे मुक्त जीव इस भौतिक जगत के कार्य-व्यापार में उदासीन रहते हैं, क्योंकि वे भक्तिमय सेवा की महान् उपलब्धियों से ही आत्म-तुष्ट रहते हैं। जैसाकि पहले बताया जा चुका है, शुकदेव गोस्वामी ने न तो कोई औपचारिक गुरु का स्वीकार किया, न ही कोई औपचारिक संस्कार सम्पन्न किये। उनके पिता व्यासदेव उनके नैसर्गिक गुरु थे, क्योंकि शुकदेव गोस्वामी ने श्रीमद्भागवत इन्हीं से सुना। इसके बाद वे पूर्ण रूप से आत्मतुष्ट बन गये। इस प्रकार वे किसी औपचारिक विधि पर निर्भर न थे। औपचारिक विधियाँ तो उनके लिए आवश्यक हैं, जो पूर्ण मोक्ष अवस्था को प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन श्रीशुकदेव गोस्वामी तो अपने पिता की कृपा से पहले से उस अवस्था में ही थे। तरुण बालक होने के नाते, उनसे समुचित वेश में रहने की आशा की जाती थी, लेकिन वे नग्न रहते और किसी सामाजिक परिपारी में रुचि न दिखाते। सामान्य जन उनकी उपेक्षा करते थे, किन्तु वे जिज्ञासु बालकों तथा स्त्रियों से ऐसे घिरे रहते जैसे की वे कोई पागल हों। इस प्रकार वे यहाँ पर तब प्रगट हुए, जब वे स्वेच्छा से पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे। महाराज परीक्षित की जिज्ञासा से ऐसा प्रतीत होता है कि महर्षिगण एकमत नहीं हो पा रहे थे कि क्या किया जाय। आध्यात्मिक मोक्ष के लिए विभिन्न व्यक्ति विभिन्न प्रकार की युक्तियाँ बताते हैं। किन्तु जीवन का चरम लक्ष्य भक्ति की चरम सिद्ध अवस्था प्राप्त करना है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न डॅाक्टर भिन्न-भिन्न नुस्खे लिखते हैं, उसी प्रकार मुनियों में भी मत भिन्नता होती है। जब ये सारी बातें चल रही थीं, तभी व्यासदेव के शक्तिसम्पन्न (तेजस्वी) पुत्र वहाँ पर प्रकट हुए।
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