स संवृतस्तत्र महान् महीयसां
ब्रह्मर्षिराजर्षिदेवर्षिसङ्घै: ।
व्यरोचतालं भगवान् यथेन्दु-
र्ग्रहर्क्षतारानिकरै: परीत: ॥ ३० ॥
शब्दार्थ
स:—श्री शुकदेव गोस्वामी; संवृत:—घिरे हुए; तत्र—वहाँ; महान्—महान्; महीयसाम्—सबसे महान् से; ब्रह्मर्षि—ब्राह्मणों में ऋषि; राजर्षि—राजाओं में साधु; देवर्षि—देवताओं में साधु; सङ्घै:—के समूह द्वारा; व्यरोचत—भलीभाँति योग्य; अलम्— समर्थ; भगवान्—शक्तिमान; यथा—जिस तरह; इन्दु:—चन्द्रमा; ग्रह—लोक; ऋक्ष—स्वर्ग-लोक; तारा—तारे; निकरै:—समूह द्वारा; परीत:—घिरे हुए ।.
अनुवाद
तब शुकदेव गोस्वामी साधु, मुनियों तथा देवताओं से इस तरह घिरे हुए थे जिस तरह चन्द्रमा तारों, नक्षत्रों तथा अन्य आकाशीय पिण्डों से घिरा रहता है। उनकी उपस्थिति अत्यन्त भव्य थी और वे सबों द्वारा सम्मानित हुए।
तात्पर्य
साधु पुरुषों की महासभा में ब्रह्मर्षि व्यासदेव, देवर्षि नारद और क्षत्रिय राजाओं के महान् शासक परशुराम इत्यादि थे। इनमें से कुछ भगवान् के शक्तिसम्पन्न अवतार थे। शुकदेव गोस्वामी न तो ब्रह्मर्षि थे, न राजर्षि या देवर्षि, न ही वे नारद, व्यास या परशुराम के समान कोई अवतार थे। फिर भी उनका जो स्वागत किया गया, वह उनसे बढक़र था। इसका अर्थ यह हुआ कि संसार में भगवान् की अपेक्षा भगवान् के भक्त का अधिक सम्मान होता है। अतएव शुकदेव गोस्वामी जैसे भक्त की महत्ता को कभी कम करके नहीं आँकना चाहिए।
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