तब प्रखर मुनि श्री शुकदेव गोस्वामी पूर्ण शान्त भाव से बैठ गये। वे किसी भी प्रश्न का नि:संकोच होकर, बुद्धिमत्ता से उत्तर देने के लिए तैयार थे। तब महान् भक्त महाराज परीक्षित उनके पास पहुँचे और उन्होंने उनके समक्ष सिर झुकाकर प्रणाम किया और हाथ जोडक़र मधुर वाणी से विनीत होकर पूछा।
तात्पर्य
महाराज परीक्षित द्वारा गुरु से प्रश्न की जो मुद्रा अपनाई गई, वह शास्त्र के आदेशों के सर्वथा उपयुक्त है। शास्त्रीय आदेश यह है कि दिव्य विज्ञान समझने के लिए मनुष्य को चाहिए कि गुरु के पास विनीत होकर जाये। महाराज परीक्षित अब मृत्यु को प्राप्त होने के लिए उद्यत थे और सात दिनों की अल्प अवधि के पश्चात् वे भगवद्-धाम में प्रवेश करने की विधि जाननेवाले थे। ऐसे महत्त्वपूर्ण मामलों में मनुष्य को गुरु के पास पहुँचना पड़ता है। जब तक जीवन की समस्याओं का हल खोजने की आवश्यकता न हो, तब तक गुरु के पास जाने की आवश्यकता नहीं होती है। जिसे गुरु के समक्ष प्रश्न पूछने की समझ न हो, उसे गुरु के पास नहीं जाना चाहिए। गुरु की सारी योग्यताएँ शुकदेव गोस्वामी में पूर्ण रूप से प्रकट थीं। गुरु तथा शिष्य अर्थात् श्री शुकदेव एवं महाराज परीक्षित दोनों ने श्रीमद्भागवत के माध्यम से पूर्णता प्राप्त की। शुकदेव गोस्वामी ने अपने पिता व्यासदेव से श्रीमद्भागवत सीखा, लेकिन उन्हें उसे सुनाने का अवसर नहीं मिला था। अतएव उन्होंने महाराज परीक्षित के समक्ष भागवत का पाठ किया और बिना हिचक के महाराज परीक्षित के प्रश्नों के उत्तर दिये। इस प्रकार गुरु तथा शिष्य दोनों को मुक्ति प्राप्त हुई।
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