भाग्यशाली राजा परीक्षित ने कहा : हे ब्राह्मण, आपने कृपा करके यहाँ पर मेरे अतिथि के रूप में उपस्थित होकर, हम सबों के लिए तीर्थस्थल बनाकर हमें पवित्र बना दिया है। आपकी कृपा से हम अयोग्य राजा भक्त की सेवा करने के सुपात्र बनते हैं।
तात्पर्य
शुकदेव गोस्वामी जैसे सन्त भक्त सामान्यतया किन्हीं भौतिक भोक्ताओं, विशेष रूप से राजाओं के पास नहीं आते। महाराज प्रतापरुद्र भगवान् चैतन्य के अनुयायी थे, किन्तु जब उन्होंने भगवान् का दर्शन करना चाहा, तो भगवान् ने उससे भेंट करने से इनकार कर दिया, क्योंकि वे राजा थे। जो भक्त भगवान् के धाम वापस जाना चाहते हैं, उनके लिए दो बातें वर्जित हैं—सांसारिक भोक्ता तथा स्त्रियाँ। अतएव शुकदेव गोस्वामी के स्तर के भक्त राजाओं से भेंट करने में कभी रुचि नहीं रखते। निस्सन्देह, महाराज परीक्षित की बात दूसरी थी। वे राजा होते हुए भी महान् भक्त थे, अतएव शुकदेव गोस्वामी उन्हें उनके जीवन के अन्तिम क्षणों में मिलने आये। महाराज परीक्षित, अपनी भक्तिमयी विनयशीलता के कारण, अपने को अपने महान् क्षत्रिय पूर्वजों का अयोग्य वंशज अनुभव कर रहे थे, यद्यपि वे अपने पूर्वगामियों के ही समान महान् थे। राजाओं की अयोग्य सन्तानें क्षत्र-बन्धव कहलाती हैं, जिस तरह ब्राह्मणों की अयोग्य सन्तानें द्विज-बन्धु या ब्रह्मबन्धु कहलाती हैं। महाराज परीक्षित शुकदेव गोस्वामी की उपस्थिति से अत्यन्त प्रोत्साहित थे। वे महान् सन्त की उपस्थिति से अपने को पवित्र हुआ मान रहे थे, क्योंकि ऐसे सन्त की उपस्थिति किसी भी स्थान को तीर्थस्थल में बदल देती है।
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