श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 19: शुकदेव गोस्वामी का प्रकट होना  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  1.19.33 
येषां संस्मरणात्पुंसां सद्य: शुद्ध्यन्ति वै गृहा: ।
किं पुनर्दर्शनस्पर्शपादशौचासनादिभि: ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
येषाम्—जिसके; संस्मरणात्—स्मृति से; पुंसाम्—पुरुष का; सद्य:—तुरन्त; शुद्ध्यन्ति—स्वच्छ हो जाते हैं; वै—निश्चय ही; गृहा:—सारे घर; किम्—क्या; पुन:—तब; दर्शन—भेंट; स्पर्श—छूना; पाद—पाँव; शौच—धोना; आसन-आदिभि:—आसन प्रदान करने आदि से ।.
 
अनुवाद
 
 आपके स्मरण मात्र से हमारे घर तुरन्त पवित्र हो जाते हैं। तो आपको देखने, स्पर्श करने, आपके पवित्र चरणों को धोने तथा अपने घर में आपको आसन प्रदान करने के विषय में तो कहना ही क्या?
 
तात्पर्य
 पवित्र तीर्थ स्थानों का महत्त्व बड़े-बड़े मुनियों तथा सन्तों की उपस्थिति के कारण है। कहा जाता है कि पापी लोग पवित्र स्थानों में जाते हैं और अपने पापों को वहाँ छोड़ आते हैं जिससे वे वहाँ संचित हों। लेकिन बड़े-बड़े सन्तों की उपस्थिति से वह स्थान संचित पापों के संदूषण से मुक्त हो जाते हैं और इस तरह वहाँ पर उपस्थित भक्तों तथा सन्तों की कृपा से वे पवित्र स्थान पवित्र बने रहते हैं। यदि ऐसे सन्त सांसारिक लोगों के घरों में प्रकट हों, तो निश्चय ही सांसारिक भोक्ताओं के संचित पाप शमित होते जाते हैं। अतएव पवित्र सन्तों का गृहस्थों से कोई स्वार्थ नहीं रहता; उनका एकमात्र उद्देश्य गृहस्थों के घरों को पवित्र बनाना है। अतएव जब ऐसे सन्त-महात्मा द्वार पर आयें तो गृहस्थों को उनका कृतज्ञ होना चाहिए। जो गृहस्थ ऐसे पवित्र आदेशों का निरादर करता है, वह महान् अपराधी है। अतएव ऐसा आदेश है कि जो गृहस्थ सन्त को देखकर सिर नहीं झुकाता, उसे अपने महान् अपराध को निष्प्रभावित करने के लिए उस दिन उपवास करना चाहिए।
 
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