हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 19: शुकदेव गोस्वामी का प्रकट होना  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  1.19.34 
सान्निध्यात्ते महायोगिन्पातकानि महान्त्यपि ।
सद्यो नश्यन्ति वै पुंसां विष्णोरिव सुरेतरा: ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
सान्निध्यात्—उपस्थिति के कारण; ते—आपकी; महा-योगिन्—हे महान् योगी; पातकानि—सारे पाप; महान्ति—अभेद्य; अपि—के बावजूद; सद्य:—तुरन्त; नश्यन्ति—नष्ट हो जाते हैं; वै—निश्चय ही; पुंसाम्—व्यक्ति; विष्णो:—भगवान् की उपस्थिति; इव—सदृश; सुर-इतरा:—देवताओं के अतिरिक्त ।.
 
अनुवाद
 
 जिस प्रकार भगवान् की उपस्थिति में नास्तिक नहीं टिक सकता, उसी तरह हे सन्त, हे महान् योगी, मनुष्य के अभेद्य पाप भी आपकी उपस्थिति में तुरन्त नष्ट हो जाते हैं।
 
तात्पर्य
 मनुष्यों की दो श्रेणियाँ हैं—नास्तिक तथा भगवद्भक्त। चूँकि भगवद्भक्त दैवी गुणों को प्रकट करता है, अत: वह देवता कहलाता है, जबकि नास्तिक असुर कहलाता है। भगवान् विष्णु की उपस्थिति में असुर (राक्षस) टिक नहीं सकता। असुरगण सदा ही भगवान् को नष्ट करने में जुटे रहते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि भगवान् ज्योंही अपने नाम, रूप, गुण, लीला, साज-समान, या विविधता के माध्यम से प्रकट होते हैं, त्योंही असुर तत्काल नष्ट हो जाता है। कहा जाता है कि भगवान् के नाम का कीर्तन करते ही भूत भाग जाता है। बड़े-बड़े सन्त तथा भक्त भगवान् की साज-सामग्री की सूची में सम्मिलित होते हैं और इस प्रकार ज्योंही सन्त-रूपी भक्त उपस्थित होता है कि भूत-सदृश सारे पाप तुरन्त नष्ट हो जाते हैं। यह सारे वैदिक ग्रन्थों का निर्णय है। अतएव मनुष्य के लिए सन्त भक्तों की ही संगति करने की संस्तुति की जाती है, जिससे सांसारिक असुर तथा भूतप्रेत अपना दुष्प्रभाव न डाल सकें।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥