अत:—अतएव; पृच्छामि—पूछता हूँ; संसिद्धिम्—पूर्णता का मार्ग; योगिनाम्—सन्तों का; परमम्—परम; गुरुम्—गुरु; पुरुषस्य—पुरुष का; इह—इस जीवन में; यत्—जो भी; कार्यम्—कर्तव्य; म्रियमाणस्य—मरणासन्न का; सर्वथा—सब प्रकार से ।.
अनुवाद
आप महान् सन्तों तथा भक्तों के गुरु हैं। अतएव मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप सारे व्यक्तियों के लिए और विशेष रूप से जो मरणासन्न हैं, उनके लिए पूर्णता का मार्ग दिखलाइये।
तात्पर्य
जब तक कोई पूर्णता के मार्ग के विषय में पूछने के लिए पूरी तरह उत्सुक न हो, तब तक गुरु के पास जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। गुरु, गृहस्थ के लिए अलंकरण स्वरूप नहीं होते। सामान्यतया फैशनपरस्त भौतिकतावादी बिना किसी लाभ के तथाकथित गुरु नियुक्त कर लेता है। ऐसा छद्म-रूप गुरु तथाकथित शिष्य की चापलूसी करता है और नि:सन्देह इस तरह गुरु तथा
शिष्य दोनों ही नरक को जाते हैं। महाराज परीक्षित अच्छे शिष्य थे, क्योंकि वे सबों के लिए और विशेष रूप से मरणासन्न के लिए लाभप्रद प्रश्न पूछते हैं। महाराज परीक्षित द्वारा पूछा गया प्रश्न श्रीमद्भागवत के सम्पूर्ण प्रतिपाद्य विषय का मूल सिद्धान्त है। अब हमें देखना है कि महान् गुरु कितनी बुद्धिमत्तापूर्वक इसका उत्तर देते हैं।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥