नूनम्—क्योंकि; भगवत:—आपका, जो शक्तिमान हैं; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मण; गृहेषु—घरों में; गृह-मेधिनाम्—गृहस्थों का; न— नहीं; लक्ष्यते—देखे जाते हैं; हि—निश्चित ही; अवस्थानम्—ठहराव; अपि—भी; गो-दोहनम्—गाय की दुहाई; क्वचित्— विरले ही ।.
अनुवाद
हे शक्तिसम्पन्न ब्राह्मण, कहा जाता है कि आप लोगों के घर में मुश्किल से उतनी देर भी नहीं रुकते हैं, जितनी देर में गाय दुही जाती है।
तात्पर्य
संन्यास आश्रम में, सन्त तथा मुनि, गृहस्थ के घर प्रात:काल गौवें दुहते समय जाते हैं और अपने उदर-पोषण के लिए कुछ दूध माँगते हैं। गाय का धारोष्ण एक सेर दूध एक प्रौढ़ व्यक्ति के शरीर-पोषण के लिए पर्याप्त होता है। यह सभी विटामिनों से युक्त होता है, अतएव सन्त तथा मुनि केवल दूध पीकर जीवित रहते हैं। गरीब से गरीब गृहस्थ भी, कम से कम दस गौवें रखता है और प्रत्येक गाय कम से कम १२ से २० क्वार्ट दूध देती है, अतएव कोई भी साधुओं के लिए कुछ सेर दूध देने में हिचक नहीं दिखाता। यह गृहस्थों का कर्तव्य है कि बच्चों की भाँति वे संतों तथा मुनियों का पालन करें। इस तरह शुकदेव गोस्वामी जैसे सन्त को किसी गृहस्थ के द्वार पर प्रात:काल पाँच मिनट से अधिक नहीं रुकना होता। दूसरे शब्दों में, ऐसे सन्त गृहस्थों के घरों में विरले ही देखे जाते हैं, इसीलिए महाराज परीक्षित ने उनसे प्रार्थना की कि जितनी जल्दी हो सके वे उपदेश दें। गृहस्थों को भी इतना बुद्धिमान तो होना ही चाहिए कि वे द्वार पर आये हुए मुनि से कुछ दिव्य संदेश प्राप्त कर लें। गृहस्थ को सन्त से यह नहीं कहना चाहिए कि वे उस चीज के विषय में उपदेश देंं; जो बाजार में भी मिलता हो। सन्तों तथा गृहस्थों में पारस्परिक आदान-प्रदान का ऐसा सम्बन्ध होना चाहिए।
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