जब राजा इस तरह पश्चात्ताप कर रहे थ,े तो उन्हें अपनी आसन्न मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ, जो मुनि पुत्र द्वारा दिये गये शाप के अनुसार सर्प-पक्षी के काटने से होनी थी। राजा ने इसे शुभ समाचार के रूप में ग्रहण किया, क्योंकि इससे उन्हें सांसारिकता के प्रति विराग उत्पन्न होगा।
तात्पर्य
सच्चा सुख आध्यात्मिक तत्त्व या जन्म-मृत्यु के चक्र के बन्द होने पर ही प्राप्त होता है। जन्म-मृत्यु के चक्र को भगवद्धाम वापस जाकर ही तोड़ा जा सकता है। भौतिक जगत में सर्वोच्च लोक (ब्रह्मलोक) को प्राप्त करने परभी जन्म-मृत्यु के चक्र से नहीं छूटा जा सकता; तो भी हम सिद्धि प्राप्त करने के पथ को ग्रहण नहीं करते। यह सिद्धि-पथ मनुष्य को सारी भौतिक आसक्तियों से मुक्त करनेवाला है और इस तरह वह आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करने के योग्य बनता है। अतएव जो दीन-हीन हैं, वे सम्पन्न व्यक्तियों की अपेक्षा अच्छे उम्मीदवार हैं। महाराज परीक्षित भगवान् के महान् भक्त थे और भगवान् के धाम जाने के लिए प्रामाणिक उम्मीदवार थे, किन्तु ऐसा होते हुए भी, उनके साथ सबसे बड़ी बाधा चक्रवर्ती सम्राट के रूप में उनकी भौतिक सम्पत्ति थी, जिससे वे दिव्य आकाश में भगवान् के पार्षद के रूप में अपना असली पद प्राप्त नहीं कर पा रहे थे। भगवद्भक्त के रूप में वे यह समझ सके कि यद्यपि ब्राह्मण बालक का शाप मूर्खतापूर्ण था, फिर भी वह उनके लिए आशीर्वाद था, क्योंकि यह सांसारिकता से—राजनीतिक या सामाजिक दोनो से, विरक्ति का कारण था। शमीक मुनि ने भी घटना पर शोक प्रकट करने के बाद अपना कर्तव्य समझकर राजा को यह सूचना भेज दी थी ताकि वे भगवद्धाम जाने के लिए तैयार रहें। शमीक मुनि ने राजा को सन्देश भेजा कि यद्यपि उनका पुत्र शृंगी तेजस्वी ब्राह्मण बालक था, किन्तु मूर्ख होने के कारण उसने अपनी आध्यात्मिक शक्ति का दुरुपयोग राजा को व्यर्थ में शापित करने में किया। राजा द्वारा मुनि के गले में सर्प डालना मृत्यु का शाप देने के लिए पर्याप्त कारण न था। लेकिन चूँकि शाप वापस लेने का कोई उपाय नहीं था, अतएव राजा को सूचित कर दिया गया था कि एक सप्ताह के भीतर मृत्यु के लिए तैयार रहें। शमीक मुनि तथा राजा दोनों ही स्वरूपसिद्ध आत्मा थे। शमीक मुनि योगी थे और महाराज परीक्षित भक्त थे, अतएव उन दोनों में आत्म-साक्षात्कार के विषय में कोई अन्तर नहीं था। दोनों में से कोई भी मरने से भयभीत न था। महाराज परीक्षित को क्षमा याचना के लिए मुनि के पास जाना चाहिए था, किन्तु राजा को उनकी आसन्न मृत्यु की सूचना मुनि ने इतने खेद सहित भेजी थी कि राजा अब अपनी उपस्थिति से मुनि को अधिक शर्मिन्दा नहीं करना चाहते थे। उन्होंने अपनी आसन्न मृत्यु के लिए तैयारी करने तथा भगवद्धाम जाने का मार्ग खोजने का निश्चय किया।
यह मनुष्य जीवन भगवद्धाम वापस जाने या जन्म-मृत्यु के चक्र से—भवसागर से छूटने के लिए अपने को तैयार करने का सुअवसर है। इस प्रकार वर्णाश्रम-धर्म प्रणाली में प्रत्येक पुरुष तथा स्त्री को इस कार्य के लिए शिक्षा दी जाती है। दूसरे शब्दों में, वर्णाश्रम-धर्म प्रणाली सनातन-धर्म भी कहलाती है। वर्णाश्रम-धर्म प्रणाली मनुष्य को भगवद्धाम वापस जाने के लिए तैयार करती है। इस तरह गृहस्थ को वानप्रस्थ बनकर जंगल में जाकर पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने तथा अपनी अपरिहार्य मृत्यु के पूर्व संन्यास ग्रहण करने का आदेश रहता है। महाराज परीक्षित भाग्यशाली थे कि उन्हें मृत्यु के पूर्व सात दिन की पूर्व सूचना प्राप्त हो सकी। लेकिन सामान्यजनों को ऐसी कोई निश्चित पूर्वसूचना नहीं मिल पाती, यद्यपि मृत्यु सबों के लिए अवश्यम्भावी है। मूर्ख लोग मृत्यु के इस निश्चित तथ्य को भूल जाते हैं और भगवद्धाम जाने की तैयारी करने के अपने कर्तव्य की उपेक्षा करते हैं। वे खाने, पीने तथा आनन्द मनाने की पाशविक वृत्तियों में ही अपना जीवन व्यर्थ कर देते हैं। ऐसा अनुत्तरदायित्व-पूर्ण जीवन कलियुग के लोगों द्वारा अपनाया जाता है, क्योंकि उनमें ब्राह्मण संस्कृति, ईश्वर चेतना तथा गोरक्षा के तिरस्कार की पापपूर्ण इच्छा घर किये रहती है और इसके लिए राजसत्ता उत्तरदायी है। राज्य को चाहिए कि इन तीनों बातों की उन्नति के लिए धन खर्च करे और लोगों को मृत्यु की तैयारी करने की शिक्षा दे। जो राज्य ऐसा करता है, वह असली कल्याणप्रद राज्य है। अच्छा हो कि भारत राज्य आदर्श प्रशासकाध्यक्ष महाराज परीक्षित के आदर्शों का पालन करे; वह अन्य भौतिकतावादी राज्यों का अनुकरण न करे जिनके पास भगवद्धाम की कोई जानकारी नहीं है, जो मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है। भारतीय सभ्यता के आदर्शों में गिरावट आने से, न केवल भारत में, अपितु विदेशों में भी नागरिक जीवन में गिरावट आई है।
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