महाराज परीक्षित आत्म-साक्षात्कार की अन्य समस्त विधियों को छोडक़र अपने मन को कृष्णभावनामृत में एकाग्र करने के लिए गंगा नदी के तट पर दृढ़तापूर्वक बैठ गये, क्योंकि कृष्ण की दिव्य प्रेममयी सेवा सर्वोच्च उपलब्धि है और अन्य समस्त विधियों को मात करनेवाली है।
तात्पर्य
महाराज परीक्षित जैसे भक्त के लिए कोई भी भौतिक लोक, यहाँ तक कि सर्वोच्च ब्रह्मलोक भी, उतना वांछनीय नहीं जितना कि आदि पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण का धाम गोलोक वृन्दावन है। यह पृथ्वीलोक ब्रह्माण्ड के असंख्य ग्रहों में से एक है और महत् तत्त्व की परिधि में ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड होते हैं। भक्तों को भगवान् द्वारा तथा भगवान् के प्रतिनिधि गुरुओं या आचार्यों द्वारा बतलाया जाता है कि असंख्य ब्रह्मांडों में से कोई भी ग्रह भक्तों के रहने योग्य नहीं है। भक्त सदैव अपने घर भगवद्धाम वापस जाने के इच्छुक रहते हैं जहाँ वे सेवक, मित्र, माता-पिता या भगवान् के प्रेमी के रूप में, उनके पार्षदों में से एक बनकर किसी एक वैकुण्ठलोक में या भगवान् श्रीकृष्ण के धाम गोलोक वृन्दावन में रह सकें। ये सारे लोक पर-व्योम में सनातन रूप से स्थित हैं, जो महत् तत्त्व के अन्दर कारणार्णव की दूसरी ओर है। महाराज परीक्षित वैष्णव भक्तों के उच्च कुल में जन्म लेने तथा अपनी संचित धर्मनिष्ठा के कारण पहले से ही इन सारी जानकारी से अवगत थे, अतएव वे कोई भौतिक ग्रह में जाने के लिए जरा भी इच्छुक न थे। आधुनिक विज्ञानी भौतिक व्यवस्था द्वारा चन्द्रमा तक पहुँचने के अत्यन्त उत्सुक हैं, लेकिन वे इस ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च लोक की कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन महाराज परीक्षित जैसा भक्त, चन्द्रमा या इस प्रकार के किसी भी भौतिक लोक की, रंच भी परवाह नहीं करता। अतएव जब उन्हें एक निश्चित तिथि पर मृत्यु का आश्वासन दे दिया गया तो वे दिव्य यमुना नदी के तट पर, जो हस्तिनापुर की राजधानी (अब दिल्ली प्रान्त में) के पास से होकर बहती है, पूर्ण उपवास द्वारा भगवान् कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति में दृढ़-प्रतिज्ञ हो गये। गंगा तथा यमुना दोनों ही अमर्त्या (दिव्य) नदियाँ हैं और यमुना अब भी निम्नलिखित कारणों से अधिक पवित्र है।
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