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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 19: शुकदेव गोस्वामी का प्रकट होना  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  1.19.7 
इति व्यवच्छिद्य स पाण्डवेय:
प्रायोपवेशं प्रति विष्णुपद्याम् ।
दधौ मुकुन्दाङ्‌घ्रिमनन्यभावो
मुनिव्रतो मुक्तसमस्तसङ्ग: ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
इति—इस प्रकार; व्यवच्छिद्य—निश्चय करके; स:—राजा; पाण्डवेय:—पाण्डवों की योग्य सन्तान; प्राय-उपवेशम्—आमरण उपवास के लिए; प्रति—की ओर; विष्णु-पद्याम्—गंगा नदी के तट पर (भगवान् विष्णु के चरणों से निकल कर); दधौ— त्याग दिया; मुकुन्द-अङ्घ्रिम्—भगवान् कृष्ण के चरणकमलों पर; अनन्य—अविचलित; भाव:—आत्मा, भाव; मुनि-व्रत:— मुनि का व्रत लेकर; मुक्त—मुक्त; समस्त—सभी प्रकार की; सङ्ग:—संगति से ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार, पाण्डवों की सुयोग्य सन्तान, राजा ने दृढ़ संकल्प किया और आमरण उपवास करने तथा भगवान् कृष्ण के चरणकमलों में अपने आप को समर्पित करने के लिए, वे गंगा नदी के तट पर बैठ गये, क्योंकि एकमात्र कृष्ण ही मुक्ति दिलाने में समर्थ हैं। इस प्रकार उन्होंने अपने आपको समस्त संगतियों तथा आसक्तियों से मुक्त करके मुनि का व्रत स्वीकार किया।
 
तात्पर्य
 गंगा का जल देवों समेत तीनों लोकों को पवित्र करता है, क्योंकि यह भगवान् विष्णु के चरणकमलों से निकलता है। भगवान् कृष्ण विष्णु तत्त्व के स्त्रोत हैं, अतएव उनके चरणकमलों की शरण मनुष्य को ब्राह्मण के प्रति राजा द्वारा किये गये अपराध सहित समस्त पापों से उबार सकती है। अतएव महाराज परीक्षित ने मुकुन्द अथवा मुक्तिदाता भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने का निश्चय किया। गंगा या यमुना नदी के तट मनुष्य को भगवान् का निरन्तर स्मरण करने का एक अवसर प्रदान करते हैं। महाराज परीक्षित ने अपने आपको सभी प्रकार की भौतिक संगति से विलग कर लिया और भगवान् कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान किया और यही मुक्ति का मार्ग है। समस्त प्रकार की भौतिक संगति से मुक्त होने का अर्थ है, आगे और कोई पाप न करना। भगवान् के चरणकमलों का ध्यान करने का अर्थ है, समस्त पूर्व-पापों के प्रभावों से मुक्त होना। भौतिक जगत में ऐसी परस्थितियाँ बन जाती हैं कि मनुष्यों से, जाने या अनजाने, पाप हो जाता है और इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं स्वयं महाराज परीक्षित, जो माने हुए एक निष्पाप-पवित्र राजा थे। किन्तु वे कोई त्रुटि करना न चाहते हुए भी, अपराध के शिकार हो गये। उन्हें शाप भी दिया गया, किन्तु चूँकि वे भगवान् के बहुत बड़े भक्त थे, अतएव जीवन की ऐसी प्रतिकूलताएँ भी अनुकूल हो गईं। सिद्धान्त यह है कि मनुष्य को जानबूझ कर अपने जीवन में कोई पाप नहीं करना चाहिए और अविचल भाव से भगवान् के चरणकमलों को स्मरण रखना चाहिए। ऐसी ही दशाओं में भक्त को मुक्ति-मार्ग में नियमित प्रगति करने में भगवान् सहायक होंगें और इस तरह भक्त को भगवान् के चरणकमल प्राप्त हो सकेंगे। यदि भक्त से कोई आकस्मिक पाप हो भी जाता है, तो भगवान् इस शरणागत को सभी पापों से बचा लेते हैं, जिसकी पुष्टि सभी शास्त्रों में हुई है—

स्वपादमूलं भजत: प्रियस्य त्यक्तान्यभावस्य हरि: परेश:।

विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चिद् धुनोति सर्वं हृदि सन्निविष्ट: ॥

(भागवत ११.५.४२)

 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥