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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 2: दिव्यता तथा दिव्य सेवा  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  1.2.10 
कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता ।
जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभि: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
कामस्य—इच्छाओं का; —नहीं; इन्द्रिय—इन्द्रियों की; प्रीति:—तुष्टि; लाभ:—लाभ; जीवेत—आत्मसंरक्षण; यावता—जितना; जीवस्य—जीव का; तत्त्व—परम सत्य की; जिज्ञासा—पूछताछ, उत्कंठा; —नहीं; अर्थ:—अन्त, लक्ष्य; य: च इह—अन्य जो भी; कर्मभि:—वृत्तियों के द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 जीवन की इच्छाएँ इन्द्रियतृप्ति की ओर लक्षित नहीं होनी चाहिए। मनुष्य को केवल स्वस्थ जीवन की या आत्म-संरक्षण की कामना करनी चाहिए, क्योंकि मानव तो परम सत्य के विषय में जिज्ञासा करने के निमित्त बना है। मनुष्य की वृत्तियों का इसके अतिरिक्त, अन्य कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए।
 
तात्पर्य
 पूर्ण रूप से मोहग्रस्त भौतिक सभ्यता गलत तरीके से इन्द्रियतृप्ति की इच्छापूर्ति की दिशा में अग्रसर है। ऐसी सभ्यता में, जीवन के सभी क्षेत्रों में, इन्द्रियतृप्ति ही चरम लक्ष्य होता है। चाहे राजनीति हो या कि समाज सेवा, परोपकार, परहितवाद या धर्म, यहाँ तक कि मोक्ष में भी वही इन्द्रियतृप्ति के रंग की प्रधानता बढ़ती ही जा रही है। राजनीतिक क्षेत्र में लोगों के नेता अपनी-अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए परस्पर झगड़ते हैं। मतदाता भी नेताओं को तभी मानते हैं, जब वे उनकी इन्द्रियतृप्ति कराने का वचन देते हैं। जब मतदाता अपनी इन्द्रियतृप्ति में असन्तुष्ट हो जाते हैं, तब वे नेता को पदच्युत करा देते हैं। नेताओं द्वारा मतदाताओं की इन्द्रियों की तुष्टि न करके उन्हें सदैव निराश करना पड़ता है। अन्य क्षेत्रों में भी यह लागू होता है; कोई भी जीवन की समस्याओं के प्रति गम्भीर नहीं है। यहाँ तक कि परम सत्य से तदाकार होने के इच्छुक पथगामी (मुमुक्षु) भी इन्द्रियतृप्ति के लिए आध्यात्मिक हत्या करने तक को उद्यत रहते हैं। किन्तु भागवत का कथन है कि मनुष्य को इन्द्रियतृप्ति के लिए नहीं जीना चाहिए। इन्द्रियों की तुष्टि वहीं तक की जाय, जहाँ तक आत्म-संरक्षण हेतु आवश्यकता हो, इन्द्रियतृप्ति के लिए नहीं। चूँकि शरीर इन्द्रियों से बना है और ये इन्द्रियाँ कुछ न कुछ तुष्टि चाहती हैं, अत: ऐसी इन्द्रियों की तुष्टि के लिए कुछ विधि-विधान बनाये गये हैं। किन्तु इन्द्रियाँ अनियन्त्रित भोग के लिए नहीं हैं। उदाहरणार्थ, विवाह यानी स्त्री तथा पुरुष की युति सन्तानोत्पत्ति के लिए आवश्यक है, किन्तु यह इन्द्रिय-भोग के लिए नहीं होता। स्वेच्छ निरोध के अभाव में परिवार नियोजन के लिए प्रचार करना पड़ता है, किन्तु मूर्ख लोग यह नहीं जानते हैं कि परम सत्य की खोज में लगते ही स्वत: परिवार नियोजन हो जाता है। परम सत्य की खोज करने वाले कभी भी अनावश्यक इन्द्रिय-तृप्ति के प्रति आकृष्ट नहीं होते, क्योंकि परम सत्य की खोज के कार्य में वे पूरी तरह व्यस्त रहते हैं। अतएव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परम सत्य की खोज को ही चरम लक्ष्य बनाना चाहिए। इससे मनुष्य सुखी होगा क्योंकि वह तरह-तरह की इन्द्रियतृप्ति में कम लिप्त होगा। और वह परम सत्य क्या है, इसकी व्याख्या आगे की गई है।
 
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