ज्ञान तथा वैराग्य से समन्वित गम्भीर जिज्ञासु या मुनि, वेदान्त-श्रुति के श्रवण से ग्रहण की हुई भक्ति द्वारा परम सत्य की अनुभूति करता है।
तात्पर्य
भगवान् वासुदेव जो परम सत्य की पूर्ण अभिव्यक्ति के समान हैं, उनकी भक्तिमय सेवा की प्रक्रिया से परम सत्य की अनुभूति होती है। ब्रह्म उनका दिव्य शारीरिक तेज है और परमात्मा उनका आंशिक स्वरूप है। फलत: ब्रह्म या परमात्मा की अनुभूति परम सत्य की आंशिक अनुभूति मात्र है। मनुष्य चार प्रकार के होते हैं—कर्मी, ज्ञानी, योगी तथा भक्त। कर्मी भौतिकतावादी होते हैं, किन्तु शेष तीन अध्यात्मवादी होते हैं। भक्त प्रथम श्रेणी के अध्यात्मवादी होते हैं, जिन्होंने परम पुरुष का साक्षात्कार कर लिया है। दूसरी श्रेणी में वे अध्यात्मवादी आते हैं, जिन्होंने परम पुरुष के पूर्ण अंश का आंशिक साक्षात्कार किया है और तीसरी श्रेणी में वे आते हैं जिन्हें परम पुरुष की दिव्य झाँकी का आभास मात्र होता है। जैसा कि भगवद्गीता तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में कहा गया है, परम पुरुष का साक्षात्कार भक्तिमय सेवा द्वारा किया जाता है, जिसके पीछे पूर्ण ज्ञान तथा भौतिक संगति से वैराग्य सन्निहित रहते हैं। हम पहले ही बता चुके हैं कि भक्तिमय सेवा के बाद ज्ञान तथा भौतिक संगति से वैराग्य आते हैं। चूँकि ब्रह्म तथा परमात्मा की अनुभूति उन परम सत्य की अपूर्ण अनुभूतियाँ हैं, अत: ब्रह्म तथा परमात्मा को प्राप्त करने के साधन अर्थात् ज्ञान तथा योग मार्ग भी परम सत्य की अनुभूति के अपूर्ण साधन हैं। भक्ति ही एकमात्र पूर्ण विधि है जिससे गम्भीर जिज्ञासु को परम सत्य की अनुभूति हो सकती है, क्योंकि भक्ति की नींव पूर्ण ज्ञान तथा भौतिक संग से वैराग्य के ऊपर खड़ी होती है और वेदान्त-श्रुति के श्रवण द्वारा सुदृढ़ होती है। अत: ऐसा नहीं है कि भक्ति अल्पज्ञ अध्यात्मवादियों के निमित्त होती है। भक्तों की तीन श्रेणियाँ हैं—प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय। तृतीय श्रेणी के भक्त या नवदीक्षित भक्त, जो ज्ञानविहीन होते हैं, वे भौतिक संगति से विरक्त नहीं होते। वे तो मन्दिर में अर्चा-विग्रह की पूजा की प्रारम्मिक प्रक्रिया के प्रति ही आकृष्ट होते हैं। ऐसे भक्त भौतिक भक्त कहलाते हैं।
ऐसे भक्त आध्यात्मिक लाभ की अपेक्षा भौतिक लाभ के प्रति अधिक आसक्त रहते हैं। अत: मनुष्य को इस भौतिक भक्ति से उन्नति करके भक्ति की द्वितीय अवस्था प्राप्त करनी होती है। इस द्वितीय अवस्था में भक्त को भक्ति की दिशा में चार तत्त्व दिखाई पड़ते हैं—परम ईश्वर, उनके भक्त, अज्ञानी तथा ईर्ष्यालु। मनुष्य को कम से कम इस द्वितीय श्रेणी के भक्त की अवस्था तक उठना होता है, जिससे वह परम सत्य को जानने का पात्र बन सके।
अत: तृतीय श्रेणी के भक्त को भक्ति सम्बन्धी अनुदेश भागवत के प्रामाणिक स्रोतों से प्राप्त करने होते हैं। पहली श्रेणी का भागवत सुस्थापित भक्त है और दूसरा है भागवतम् जो ईश्वर का सन्देश है। अत: तृतीय श्रेणी के भक्त को भक्ति के उपदेशों की शिक्षा लेने के लिए किसी सच्चे भक्त के पास जाना होता है। ऐसा भक्त कोई व्यवसायी व्यक्ति नहीं होता, जो भागवत को व्यापार समझकर अपनी जीविका कमाता हो। ऐसे भक्त को सूत गोस्वामी की तरह शुकदेव गोस्वामी का प्रतिनिधि होना चाहिए और उसे समस्त जनता के चतुर्दिक् कल्याण के लिए भक्ति उपासना पद्धति का उपदेश करना चाहिए। नवजिज्ञासु भक्त को प्रामाणिक व्यक्तियों से सुनने में तनिक भी रुचि नहीं रहती। ऐसा नवजिज्ञासु भक्त अपनी इन्द्रियतृप्ति के हेतु किसी व्यावसायिक व्यक्ति से सुनने का दिखावा करता है। इस प्रकार के श्रवण तथा कीर्तन से सारा मामला गडबड़ा गया है, अत: इस दोषपूर्ण विधि के प्रति अत्यन्त सतर्क रहने की आवश्यकता है। भगवद्गीता या श्रीमद्भागवत में निहित भगवान् के दिव्य संदेश निस्सन्देह दिव्य विषय हैं, किन्तु ऐसा होते हुए भी उन्हें किसी व्यावसायिक व्यक्ति से ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह उन्हें उसी प्रकार दूषित कर देता है जिस प्रकार सर्प अपनी जीभ के स्पर्श मात्र से दूध को विषाक्त कर देता है।
अतएव निष्ठावान भक्त को चाहिए कि वह अपनी उन्नति के लिए उपनिषद्, वेदान्त जैसे वैदिक साहित्य को तथा पूर्ववर्ती आचार्यों अथवा गोस्वामियों द्वारा छोड़े गये (संकलित) अन्य साहित्य को सुने। ऐसे साहित्य का श्रवण किये बिना मनुष्य सच्ची उन्नति नहीं कर सकता। बिना श्रवण किये तथा आदेशों का पालन किये बिना भक्ति का प्रदर्शन निरर्थक है और यह भक्ति के पथ में अवरोध जैसा है। अतएव जब तक श्रुति, स्मृति, पुराण या पञ्चरात्र प्रमाणों जैसे सिद्धान्तों पर भक्ति स्थापित न हो, तब तक भक्ति के ऐसे प्रदर्शन को तत्काल त्याज्य समझना चाहिए। किसी अनधिकृत भक्त को कभी भी शुद्ध भक्त की मान्यता नहीं दी जानी चाहिए। वैदिक साहित्य से ऐसे संदेशों को आत्मसात् करके अपने भीतर अन्तर्यामी परमात्मा को निरंतर देखा जा सकता है। यह समाधि कहलाती है।
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