अतएव मनुष्य को एकाग्रचित से उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के विषय में निरन्तर श्रवण, कीर्तन, स्मरण तथा पूजन करना चाहिए, जो भक्तों के रक्षक हैं।
तात्पर्य
यदि परम सत्य का साक्षात्कार ही जीवन का चरम लक्ष्य है, तो इसे हर सम्भव साधन से अवश्य करना चाहिए। उपर्युक्त वर्णों तथा आश्रमों में से हर एक में गुणगान, श्रवण, स्मरण तथा पूजन—ये चार विधियाँ सामान्य वृत्तियाँ हैं। इन जीवन-सिद्धान्तों के बिना कोई रह नहीं सकता। जीवों के कार्यकलाप जीवन के इन्हीं चार विभिन्न सिद्धान्तों में व्यस्त रहने में निहित हैं। विशेष रूप से आधुनिक समाज में तो मुख्यतया सारे कार्यक्रम श्रवण तथा कीर्तन पर ही मुख्यतया आधारित हैं। कोई भी व्यक्ति, चाहे उसकी सामाजिक हैसियत कैसी भी क्यों न हो, वह कुछ ही काल में विख्यात हो जाता है यदि दैनिक समाचारपत्र उसका गुणगान करते हों, चाहे ये गुणगान झूठे हों या सच। कभी-कभी किसी दल विशेष के राजनीतिक नेताओं का विज्ञापन समाचार पत्रों में प्रसारित होता है और ऐसे गुणगान की विधि से एक नगण्य व्यक्ति भी अल्प समय में महत्त्वपूर्ण बन जाता है। किन्तु अयोग्य व्यक्ति के ऐसे झूठे प्रचार से न तो उस व्यक्ति का लाभ होता है, न समाज का। भले ही ऐसे प्रचार की क्षणिक प्रतिक्रिया हो ले, किन्तु इसका प्रभाव स्थायी नहीं होता। अत: ऐसे कार्य समय का अपव्यय है। गुणगान तो उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का करना चाहिए, जिन्होंने हमारे सामने प्रकट होने वाली प्रत्येक वस्तु की सृष्टि की। हम इसकी विस्तृत व्याख्या भागवत के जन्माद्यस्य वाले प्रथम श्लोक के आरम्भ में ही कर चुके हैं। अन्यों का गुणगान करने या अन्यों के विषय में सुनने की प्रवृत्ति को गुणगान के वास्तविक लक्ष्य परमेश्वर की ओर मोडऩा चाहिए। इससे सुख उपजेगा।
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