हाथ में तलवार लिए बुद्धिमान मनुष्य भगवान् का स्मरण करते हुए कर्म की बँधी हुई ग्रंथि को काट देते हैं। अतएव ऐसा कौन होगा जो उनके सन्देश की ओर ध्यान नहीं देगा?
तात्पर्य
भौतिक तत्त्वों के सम्पर्क में आने से आध्यात्मिक स्फुलिंग एक ग्रंथि उत्पन्न कर देती है। अत: जो कर्म के घात-प्रतिघात से मुक्त होने का इच्छुक होता है, उसे इस ग्रंथि को काटना होता है। मुक्ति का अर्थ है, कर्म के चक्र से छूटना। जो व्यक्ति निरन्तर भगवान् की दिव्य लीलाओं का स्मरण करता है, उसे स्वत: यह मुक्ति मिल जाती है। इसका कारण यह है कि परम भगवान् की सारी लीलाएँ भौतिक शक्ति के गुणों से परे होती हैं। ये सारी दिव्य लीलाएँ परम सर्वा-कर्षक होती हैं, और इस प्रकार भगवान के आध्यात्मिक कार्य का सतत सान्निध्य बद्ध जीव को क्रमश: आध्यात्मिक बना देता है तथा सान्निध्य से बद्धजीव क्रमश: आध्यात्मिक बना देता है तथा अन्तत: उसकी भौतिक बन्धन की ग्रन्थि विच्छिन्न हो जाती है।
अतएव भवबन्धन से मुक्ति मिलना भक्ति का गौण फल है। केवल आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति से ही मुक्ति निश्चित नहीं होती। ऐसे ज्ञान के ऊपर भक्ति का लेप चढ़ाना जरूरी है, जिससे अन्तत: भक्ति की ही प्रधानता बनी रहे। तभी मुक्ति सम्भव होती है। यहाँ तक कि सकाम कर्मियों के कर्म भी, यदि वे भक्ति से लेपित हों, तो उन्हें मुक्ति की ओर ले जा सकते हैं। भक्ति से लेपित कर्म कर्मयोग कहलाता है। इसी प्रकार भक्ति से लेपित अनुभव-गम्य ज्ञान ज्ञानयोग कहलाता है। किन्तु शुद्ध भक्तियोग ऐसे कर्म तथा ज्ञान से स्वतन्त्र है, क्योंकि यह अकेले, न केवल बद्ध जीवन से मोक्ष दिलाने वाला है, अपितु भगवान् की प्रेमाभक्ति भी प्रदान करने वाला है।
अतएव किसी भी ऐसे विवेकशील व्यक्ति को जो मध्यम स्तर के अल्पज्ञ व्यक्ति से ऊपर है, उसे भगवान् के बारे में श्रवण करके, उनका गुणगान करके, उनका ध्यान तथा पूजन करके निरन्तर उनका स्मरण करना चाहिए। भक्ति की यही सम्यक् विधि है। वृन्दावन के गोस्वामी, जिन्हें श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति उपासना पद्धति का उपदेश देने के लिए अधिकृत किया था, इस नियम का दृढ़ता से पालन करते रहे और उन्होंने हमारे लाभ के लिए दिव्य विज्ञान का प्रभूत साहित्य तैयार किया। उन्होंने विभिन्न वर्णों तथा आश्रमों के लोगों के लिए श्रीमद्भागवत तथा ऐसे ही अन्य प्रामाणिक शास्त्रों के आधार पर विविध मार्ग बनाये हैं।
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