शुश्रूषो: श्रद्दधानस्य वासुदेवकथारुचि: ।
स्यान्महत्सेवया विप्रा: पुण्यतीर्थनिषेवणात् ॥ १६ ॥
शब्दार्थ
शुश्रूषो:—श्रवण में व्यस्त; श्रद्दधानस्य—श्रद्धापूर्वक; वासुदेव—वासुदेव की; कथा—संदेश, कथा में; रुचि:—लगाव; स्यात्—सम्भव बन जाता है; महत्-सेवया—शुद्ध भक्तों की सेवा करके; विप्रा:—हे द्विजगण; पुण्य-तीर्थ—समस्त पापों से शुद्ध हुओं की; निषेवणात्—सेवा से ।.
अनुवाद
हे द्विजो, जो भक्त समस्त पापों से पूर्ण रूप से मुक्त हैं, उनकी सेवा करने से महान सेवा हो जाती है। ऐसी सेवा से वासुदेव की कथा सुनने के प्रति लगाव उत्पन्न होता है।
तात्पर्य
जीव के बद्ध जीवन का कारण भगवान् के विरुद्ध विद्रोह है। कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जो देव कहलाते हैं और कुछ ऐसे हैं जो असुर कहलाते हैं, क्योंकि ये परमेश्वर की सत्ता के विरुद्ध रहते हैं। भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में असुरों का विशद वर्णन किया गया है, जिसमें कहा गया है कि उन्हें जन्म-जन्मान्तर अज्ञान की निम्नतर अवस्थाओं में रखा जाता है। अत: उन्हें पशु योनियों में रहना होता है, जिससे उन्हें परम सत्य, भगवान् की कोई जानकारी नहीं रहती। ये असुर भगवान् की इच्छानुसार उनके मुक्त सेवकों की कृपा से विभिन्न देशों में धीरे-धीरे ईश्वर- चेतना में परिशोधित किये जाते हैं। ईश्वर के ऐसे भक्त भगवान् के अन्तरंग पार्षद होते हैं और जब वे समाज को ईश्वरविहीन होने के खतरे से बचाने के लिए आते हैं, तो वे ईश्वर के शक्तिशाली अवतार, उनके पुत्र, उनके दास या उनके पार्षद कहलाते हैं। किन्तु इनमें से कोई भी मिथ्या तौर पर अपने को ईश्वर नहीं कहता। यह तो असुरों द्वारा घोषित निन्दा है और ऐसे असुरों के दानवी अनुयायी भी इन बहुरूपियों को ईश्वर या उनका अवतार मान लेते हैं। प्रामाणिक शास्त्रों में भगवान् के अवतार के विषय में निश्चित जानकारी मिलती है। जब तक प्रामाणिक शास्त्रों से पुष्टि न हो ले, तब तक किसी को ईश्वर या ईश्वर का अवतार नहीं मानना चाहिए।
वास्तव में जो भक्त भगवद्धाम जाने के इच्छुक हैं, उन्हें चाहिए कि भगवान् के सेवकों को भगवान् के रूप में मानें। भगवान् के ऐसे दास महात्मा या तीर्थ कहलाते हैं और वे विशिष्ट देश- काल के अनुसार उपदेश देते हैं। भगवान् के सेवक लोगों को भगवद्भक्त बनने के लिए प्रेरित करते हैं। वे कभी यह सहन नहीं कर सकते कि कोई उन्हें ईश्वर कहे। यद्यपि श्री चैतन्य महाप्रभु प्रामाणिक शास्त्रों के निर्देशानुसार साक्षात् भगवान् थे, किन्तु वे भक्त की तरह बने रहे। जो लोग उन्हें ईश्वर रूप में जानते थे, वे उन्हें ईश्वर कहकर पुकारते थे, किन्तु तब वे अपने कानों को हाथों से बन्द करके भगवान् विष्णु के नाम का कीर्तन करने लगते थे। वे स्वयं को ईश्वर कहलवाने का घोर विरोध करते थे, यद्यपि वे निस्संदेह साक्षात् भगवान् थे। भगवान् हमें उन धूर्तों से आगाह करने के लिये ऐसा आचरण करते हैं, जो अपने को ईश्वर कहलवाते हैं।
ईश्वर के दास ईश्वरीय चेतना का प्रसार करने के लिए आते हैं। बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वे उनके साथ हर तरह से सहयोग करें। भगवान् अपनी प्रत्यक्ष सेवा की अपेक्षा अपने दास की सेवा किये जाने से अधिक प्रसन्न होते हैं। भगवान् तब अत्यधिक प्रसन्न होते हैं, जब वे यह देखते हैं कि उनके भक्तों का समुचित आदर हो रहा है, क्योंकि वे भगवान् की सेवा के लिए सभी प्रकार के कष्ट उठाते हैं, अत: वे उन्हें अत्यन्त प्रिय होते हैं। भगवद्गीता (१८.६९) में भगवान् घोषित करते हैं कि उन्हें उस भक्त के समान अन्य कोई प्रिय नहीं है, जो उनकी महिमा का प्रचार करते हुए अपना सर्वस्व संकट में डालता है। भगवान् के सेवकों की सेवा करके कोई भी धीरे धीरे उन सेवकों के गुणों को प्राप्त करता है और इस प्रकार वह भगवान् की महिमा सुनने के योग्य बन जाता है। भगवद्धाम में प्रवेश पाने के लिए भक्त की पहली योग्यता यह है कि वह भगवान् के विषय में सुनने को उत्सुक हो।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.