श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 2: दिव्यता तथा दिव्य सेवा  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  1.2.17 
श‍ृण्वतां स्वकथा: कृष्ण: पुण्यश्रवणकीर्तन: ।
हृद्यन्त:स्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम् ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
शृण्वताम्—जिन्होंने कथा सुनने की रुचि उत्पन्न कर ली है; स्व-कथा:—अपनी वाणी; कृष्ण:—भगवान्; पुण्य— पावन; श्रवण—सुनना; कीर्तन:—कीर्तन करना; हृदि अन्त: स्थ:—अपने ह्यदय के भीतर; हि—निश्चय ही; अभद्राणि— पदार्थ को भोगने की इच्छा; विधुनोति—स्वच्छ करता है, विमल बनाता है; सुहृत्—उपकारी; सताम्—सत्यनिष्ठ के ।.
 
अनुवाद
 
 प्रत्येक हृदय में परमात्मास्वरूप स्थित तथा सत्यनिष्ठ भक्तों के हितकारी भगवान् श्रीकृष्ण, उस भक्त के हृदय से भौतिक भोग की इच्छा को हटाते हैं जिसने उनकी कथाओं को सुनने में रुचि उत्पन्न कर ली है, क्योंकि ये कथाएँ ठीक से सुनने तथा कहने पर अत्यन्त पुण्यप्रद हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् श्रीकृष्ण की कथाएँ उनसे अभिन्न हैं। अतएव जब भी अपराध-रहित होकर भगवान् के बारे में श्रवण तथा उनका गुणगान किया जाता है, तो यह समझना चाहिए कि वहाँ पर भगवान् कृष्ण दिव्य शब्द के रूप में उपस्थित हैं जो साक्षात् भगवान् के समान ही शक्तिमान है। श्री चैतन्य महाप्रभु अपने शिक्षाष्टक में स्पष्ट रूप से घोषित करते हैं कि भगवान् के पवित्र नाम में भगवान् की सारी शक्तियाँ निहित हैं और उन्होंने अपने असंख्य नामों को वही शक्ति प्रदान की है। इसके लिए कोई समयावधि निश्चित नहीं है। कोई भी व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार ध्यानपूर्वक तथा आदरपूर्वक पवित्र नाम का जप कर सकता है। भगवान् हम पर इतने दयालु हैं कि वे हमारे समक्ष दिव्य शब्द के रूप में साक्षात् उपस्थित हो सकते हैं, किन्तु दुर्भाग्यवश हममें भगवान् के नाम और उनकी लीलाओं को सुनने तथा उनका महिमा-गान करने के प्रति कोई रुचि नहीं है। हम पहले ही पवित्र शब्द के श्रवण तथा कीर्तन के प्रति रुचि उत्पन्न करने के विषय में बता चुके हैं। इसे भगवान् के शुद्ध भक्त की सेवा करके प्राप्त किया जा सकता है।

भगवान् अपने भक्तों के साथ परस्पर आदान-प्रदान करते हैं। जब भगवान् देखते हैं कि भक्त उनकी सेवा में प्रवेश पाने के लिए पूर्ण निष्ठा से तत्पर है और फलस्वरूप उनके विषय में सुनने का इच्छुक है, तो वे भक्त के भीतर से इस तरह से कार्य करते हैं कि भक्त उनके पास सरलता से वापस चला जाये। भगवान् हमारी अपेक्षा अधिक उत्सुक हैं कि हम उनके पास वापस जाँए। किन्तु हममें से अधिकांश भगवान् के धाम में वापस नहीं जाना चाहते। केवल कुछ ही ऐसे हैं जो भगवान् के पास वापस जाना चाहते हैं। किन्तु जो कोई भी भगवद्धाम में वापस जाना चाहता है, श्रीकृष्ण सब तरह से उसकी सहायता करते हैं।

कोई तब तक भगवान् के धाम में प्रविष्ट नहीं हो सकता, जब तक कि वह समस्त प्रकार के पापों से मुक्त न हो जाए। भौतिक पाप हमारे द्वारा भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त करने की इच्छाओं के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं। ऐसी इच्छाओं से पिंड छुड़ा पाना बहुत कठिन है। भक्त के लिए भगवद्धाम वापस जाने के मार्ग में कामिनी तथा कंचन मुख्य बाधाएँ हैं। भक्तिपथ के अनेक दिग्गज इन प्रलोभनों के शिकार हो जाते है और इस प्रकार से मुक्ति पथ से लौट आते है, किन्तु जब स्वयं भगवान् मनुष्य की सहायता करते हैं, तो भगवत्कृपा से सारी प्रक्रिया सुगम बन जाती है।

कामिनी तथा कंचन के संसर्ग में आकर अशान्त होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि प्रत्येक जीव लम्बे समय से—व्यावहारिक दृष्टि से कहें तो अनादि काल से ऐसी वस्तुओं से जुड़ा रहा है और इस बेगानी प्रकृति से छुटकारा पाने में समय लगता है। किन्तु यदि कोई भगवान् के यश का श्रवण करने में जुट जाता है, तो धीरे-धीरे उसे अपनी असली स्थिति की अनुभूति हो जाती है। भगवत्कृपा से ऐसे भक्त को प्रचुर शक्ति प्राप्त होती है, जिससे वह विघ्नों से अपनी रक्षा कर सकता है और सारे अनर्थ उसके मस्तिष्क से क्रमश: दूर हो जाते हैं।

 
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