नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।
भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥ १८ ॥
शब्दार्थ
नष्ट—समाप्त; प्रायेषु—प्राय: शून्य; अभद्रेषु—समस्त अमंगलों से; नित्यम्—नियमित रूप से; भागवत—श्रीमद्भागवत या शुद्ध भक्त की; सेवया—सेवा द्वारा; भगवति—भगवान् में; उत्तम—दिव्य; श्लोके—स्तुतियाँ; भक्ति:—प्रेमाभक्ति, सेवा; भवति—(उत्पन्न) होती है; नैष्ठिकी—अटल, अविचल ।.
अनुवाद
भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णत: विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है, जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है।
तात्पर्य
यहाँ पर हृदय से उन अमंगलकारी वस्तुओं को निकालने का उपचार दिया गया है, जो आत्म-साक्षात्कार के पथ पर अवरोधरूप हैं। यह उपचार है भागवतों की संगति करना। भागवत दो प्रकार के होते हैं—एक तो ग्रंथ-भागवत और दूसरे भक्त-भागवत। ये दोनों ही भागवत कारगर औषधियाँ हैं और इनमें से कोई एक या दोनों ही अवरोधों को हटाने वाले हैं। भक्त-भागवत ग्रन्थ-भागवत के ही समान है, क्योंकि भक्त-भागवत ग्रन्थ-भागवत के अनुसार ही जीवन-यापन करता है और ग्रन्थ-भागवत तो भगवान् तथा उनके शुद्ध भक्तों अर्थात भागवतों के ज्ञान से पूर्ण है ही। भागवत ग्रन्थ तथा भागवत व्यक्ति अभिन्न हैं।
भक्त-भागवत भगवान् का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि है। अत: भक्त-भागवत भक्त को प्रसन्न करने से ग्रन्थ-भागवत ग्रन्थ का लाभ उठाया जा सकता है। मानवीय तर्क यह नहीं समझ पाता कि किस प्रकार भक्त-भागवत या ग्रन्थ-भागवत की सेवा द्वारा कोई भक्ति के पथ पर अग्रसर होता है। किन्तु ये तथ्य हैं जिनकी व्याख्या श्रील नारददेव द्वारा की गई है, जो अपने पूर्वजन्म में एक दासी के पुत्र थे। दासी ऋषियों की टहल करती थी और इस तरह वह भी उनके सम्पर्क में आया। केवल उनके सर्म्पक से तथा उनका जूठन खाकर यह दासी-पुत्र श्रील नारददेव नामक महान भक्त तथा एक महान व्यक्तित्व बन सका। भागवतों की संगति के ऐसे चमत्कारी प्रभाव होते हैं। इन प्रभावों को व्यावहारिक रूप से समझने के लिए यह ध्यान देना आवश्यक है कि भागवतों की ऐसी निष्कलुष संगति से दिव्य ज्ञान अवश्यमेव बड़ी आसानी से प्राप्त होगा, जिससे मनुष्य भगवान् की भक्तिमय सेवा में स्थिर हो जाता है। वह भागवतों के मार्गदर्शन में भक्ति में जितनी ही प्रगति करता है, उतना ही वह भगवान् की दिव्य प्रेममय सेवा में स्थिर होता जाता है। अतएव ग्रन्थ-भागवत की कथाओं को भक्त-भागवत से ही प्राप्त करना जरूरी है और इस प्रकार इन दोनों भागवतों के संयोग से नवदीक्षित भक्त की प्रगति होती रहेगी।
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