ज्योंही हृदय में अटल प्रेमा भक्ति स्थापित हो जाती है, प्रकृति के रजोगुण तथा तमोगुण के प्रभाव जैसे काम, इच्छा तथा लोभ हृदय से लुप्त हो जाते हैं। तब भक्त सत्त्वगुण में स्थित होकर परम सुखी हो जाता है।
तात्पर्य
अपनी सामान्य संवैधानिक स्थिति में जीव आध्यात्मिक आनन्द में पूर्ण रूप से तुष्ट रहता है। यह स्थिति ब्रह्मभूत या आत्मानन्दी अर्थात् आत्मतुष्टि की स्थिति कहलाती है। यह आत्मतुष्टि किसी निष्क्रिय मूर्ख की तुष्टि जैसी नहीं होती। निष्क्रिय मूर्ख अज्ञानावस्था में रहता है, किन्तु आत्मतुष्ट आत्मानन्दी इस भौतिक जगत से परे होता है। सिद्धि की यह अवस्था अटल भक्ति में स्थित होते ही प्राप्त हो जाती है। भक्तिमय सेवा कोई निष्क्रियता नहीं, अपितु आत्मा की अनन्य सक्रियता है।
आत्मा की यह सक्रियता पदार्थ के संसर्ग से अपमिश्रित (दूषित) हो जाती है। फलत: काम, इच्छा, लोभ, निष्क्रियता, मूर्खता तथा निद्रा के रूप में रुग्ण कार्यकलापों का उदय होता है। भक्तिमय सेवा का प्रभाव रजोगुण तथा तमोगुण के इन प्रभावों के पूर्ण निराकरण होने पर प्रकट होता है। तब भक्त तुरन्त ही सत्त्वगुण में स्थित हो जाता है और वह उन्नति करता हुआ वासुदेव के पद या शुद्ध-सत्त्व के पद की ओर उठने को अग्रसर होता है। केवल इस शुद्ध-सत्त्व की अवस्था में कोई व्यक्ति भगवान् के शुद्ध प्रेम के कारण अपने समक्ष कृष्ण को सदा देख सकता है। भक्त सदैव शुद्ध-सत्त्व में रहता है, अत: वह किसी को हानि नहीं पहुँचाता। किन्तु एक अभक्त, चाहे कितना ही शिक्षित क्यों न हो, सदैव हानिप्रद होता है। भक्त न तो मूर्ख होता है न रजोगुणी। हानि पहुँचाने वाले, मूर्ख तथा रजोगुणी व्यक्ति भगवद्भक्त नहीं बन सकते, भले ही वे अपने बाहरी वेश से अपने आपको भक्त क्यों न प्रदर्शित करें। भक्त में सदैव ईश्वर के सद्गुण पाये जाते हैं। इन गुणों की मात्रा भले ही भिन्न हो, किन्तु गुणता की दृष्टि से भक्त तथा भगवान् एक समान होते हैं।
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