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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 2: दिव्यता तथा दिव्य सेवा  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  1.2.20 
एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगत: ।
भगवत्तत्त्वविज्ञानं मुक्तसङ्गस्य जायते ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; प्रसन्न—स्फूर्त; मनस:—मन से; भगवत्-भक्ति—भगवान् की भक्ति के; योगत:—सम्पर्क से; भगवत्—भगवान् का; तत्त्व—ज्ञान; विज्ञानम्—वैज्ञानिक; मुक्त—मुक्त हुआ; सङ्गस्य—संगति का; जायते—हो जाता है ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार शुद्ध सत्त्व में स्थित होकर, जिस मनुष्य का मन भगवान् की भक्ति के संसर्ग से प्रसन्न हो चुका होता है उसे समस्त भौतिक संगति से मुक्त होने पर भगवान् का सही वैज्ञानिक ज्ञान (विज्ञान तत्त्व) प्राप्त होता है।
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता (७.३) में कहा गया है कि हजारों सामान्य मनुष्यों में से कोई एक भाग्यशाली होता है, जो जीवन-सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है। अधिकांश लोग रजोगुण तथा तमोगुण से प्रेरित होते हैं और इस प्रकार वे काम, इच्छा, लोभ, अज्ञान तथा निद्रा में सदैव लिप्त रहते हैं। ऐसे अनेक मनुष्य रूपी पशुओं में से कोई एक ऐसा वास्तविक रूप में मनुष्य होता है, जो मानव जीवन की जिम्मेदारी को जानता है और निर्दिष्ट किए गिये कर्तव्यों का पालन करते हुए जीवन को पूर्ण बनाने का प्रयास करता है। जीवन में इस प्रकार की सफलता प्राप्त किए हुए हजारों व्यक्तियों में से कोई एक व्यक्ति भगवान् श्रीकृष्ण के विषय में वैज्ञानिक ढंग से जान सकता है। भगवद्गीता (१८.५५) में ही कहा गया है कि श्रीकृष्ण के विज्ञान को केवल भक्तियोग की प्रक्रिया के द्वारा जाना जा सकता है।

ठीक इसी बात की उपर्युक्त श्लोक में पुष्टि हुई है। कोई भी सामान्य व्यक्ति, यहाँ तक कि जिसने मानव-जीवन में सफलता प्राप्त कर ली है वह भी, भगवान् के विषय में सही-सही या वैज्ञानिक ढंग से जान नहीं सकता। मानव-जीवन में सिद्धि तभी प्राप्त होती है, जब वह यह समझ लेता है कि वह पदार्थ का प्रतिफल नहीं, अपितु आत्मा है। और ज्योंही वह यह समझ लेता है कि उसे पदार्थ से कुछ लेना-देना नहीं है, त्योंही वह भौतिक लालसा त्याग देता है और आध्यात्मिक जीव के रूप में अनुप्राणित हो जाता है। यह सफलता तभी मिलती है, जब मनुष्य रजोगुण तथा तमोगुण से ऊपर उठ गया हो, या दूसरे शब्दों में, जब वह योग्यता के आधार पर वास्तविक रूप में ब्राह्मण हो। ‘ब्राह्मण’ शब्द सत्त्व गुण का प्रतीक है। अन्य सारे लोग जो सत्त्व गुण में नहीं हैं, वे या तो क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र या शूद्रों से भी अधम होते हैं। उत्तम गुणों के कारण ब्राह्मण अवस्था मनुष्य जीवन की सर्वोच्च अवस्था है। अत: जब तक मनुष्य में कम से कम ब्राह्मण के गुण न हों, तब तक वह भक्त नहीं हो सकता। भक्त अपने कर्म के कारण पहले से ब्राह्मण रहता है, किन्तु यह उसकी चरम परिणति नहीं है। जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है, ऐसे ब्राह्मण को वास्तव में दिव्य अवस्था प्राप्त करने के लिए वैष्णव होना चाहिए। शुद्ध वैष्णव मुक्त आत्मा होता है और ब्राह्मण पद से भी ऊपर होता है। भौतिक अवस्था में ब्राह्मण भी बद्धजीव होता है, क्योंकि ब्राह्मण अवस्था में ब्रह्म-बोध तो हो जाता है, किन्तु परमेश्वर के विज्ञान का अभाव रहता है। मनुष्य को ब्राह्मण अवस्था को पार करके वसुदेव अवस्था प्राप्त करनी होती है ताकि वह भगवान् कृष्ण को समझ सके। परमेश्वर का विज्ञान (भगवत्तत्त्व) आध्यात्मिकता के स्नातकोत्तर छात्रों के अध्ययन का विषय है। मूर्ख या अल्पज्ञ लोग परमेश्वर को नहीं जान पाते, इसीलिए वे अपनी-अपनी सनक के अनुसार कृष्ण की व्याख्या करते हैं। किन्तु तथ्य यह है कि ब्राह्मण अवस्था प्राप्त करने पर भी भौतिक गुणों के कल्मष से मुक्त हुए बिना कोई भगवान् के विज्ञान को नहीं समझ पाता। जब योग्य ब्राह्मण यथार्थ रूप में वैष्णव बन जाता है, तो वह मुक्ति की प्रबुद्धावस्था में यह जान पाता है कि वास्तव में भगवान् क्या हैं।

 
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