श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 2: दिव्यता तथा दिव्य सेवा  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  1.2.21 
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशया: ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि द‍ृष्ट एवात्मनीश्वरे ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
भिद्यते—भिद जाती है; हृदय—हृदय की; ग्रन्थि:—गाँठें; छिद्यन्ते—खण्ड-खण्ड हो जाते हैं; सर्व—सभी; संशया:— भ्रम, संदेह; क्षीयन्ते—समाप्त हो जाते हैं; च—तथा; अस्य—उसकी; कर्माणि—सकाम कर्मों की शृंखला; दृष्टे—देखने के पश्चात्; एव—निश्चय ही; आत्मनि—स्वयं आत्मा को; ईश्वरे—प्रधान या स्वामी में ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार हृदय की गाँठ भिद जाती है और सारे सशंय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। जब मनुष्य आत्मा को स्वामी के रूप में देखता है, तो सकाम कर्मों की शृंखला समाप्त हो जाती है।
 
तात्पर्य
 भगवान् का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ है, उसी के साथ ही साथ अपने आपको भी देखना। जहाँ तक आत्मारूप में जीव की पहचान की बात है, उसके सम्बन्ध में अनेक कल्पनाएँ एवं भ्रान्तियाँ हैं। भौतिकतावादी लोग तो आत्मा के अस्तित्व को ही नहीं मानते और अनुभवमूलक दार्शनिक आत्मा को बिना स्वरूप वाले निर्विशेष रूप में मानते हैं। किन्तु अध्यात्मवादी इस बात की पुष्टि करते हैं कि आत्मा तथा परमात्मा दो विभिन्न सत्ताएँ हैं, जो गुणवत्ता में एक समान हैं किन्तु परिमाण में भिन्न-भिन्न हैं। बहुत से अन्य सिद्धान्त भी हैं, किन्तु जब भक्तियोग की विधि से श्रीकृष्ण का यथार्थ साक्षात्कार हो जाता है, तो ये भिन्न-भिन्न कल्पनाएं दूर हो जाती हैं। श्रीकृष्ण सूर्य के समान हैं और परम सत्य विषयक भौतिकतावादी तर्क-वितर्क गहनतम अर्धरात्रि के समान हैं। ज्योंही हृदय में कृष्णरूपी सूर्य उदित होता है, त्योंही परम सत्य तथा जीवात्मा सम्बन्धी भौतिक कल्पनाओं का अन्धकार दूर हो जाता है। सूर्य की उपस्थिति में अन्धकार नहीं रह सकता और अज्ञान के अन्धकार में छिपा सापेक्ष सत्य, परमात्मा रूप में सबके हृदय में वास करने वाले कृष्ण की कृपा से स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाता है।

भगवद्गीता (१०.११) में भगवान् कहते हैं कि अपने शुद्ध भक्तों पर विशेष अनुग्रह करने के लिए भगवान् स्वयं अपने भक्त के हृदय में शुद्ध ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न करके, सारे संशयों के गहन अन्धकार को दूर कर देते हैं। अतएव भगवान् द्वारा भक्त के हृदय को प्रकाशित करने का दायित्व अपने ऊपर लेने के कारण, जो भक्त उनकी दिव्य प्रेमाभक्ति में लगा होता है वह अन्धकार में नहीं रह सकता। उसे परम एवं सापेक्ष सत्य के विषय में सब कुछ ज्ञात होता रहता है। भक्त कभी भी अन्धकार में नहीं रह सकता और चूँकि भगवान् द्वारा उसे प्रकाश प्राप्त होता है, अतएव उसका ज्ञान निश्चय ही पूर्ण होता है। किन्तु जो लोग अपनी खुद की सीमित शक्ति से चिन्तन करते हैं, उनके साथ ऐसा नहीं होता। पूर्ण ज्ञान परम्परा या निगमनीय (तर्कपूर्ण) ज्ञान कहलाता है। यह एक प्राधिकारी से विनीत श्रोता तक पहुँचता है, जो सेवा तथा समर्पण द्वारा प्रामाणिक होता है। ऐसा नहीं है कि कोई परमेश्वर के प्रमाण को चुनौती भी दे और उन्हें जान भी ले। उन्हें अधिकार है कि ऐसे ललकारने वाले जीव के समक्ष प्रकट ही न हों, जो परम पूर्ण का क्षुद्र स्फुलिंग मात्र है और ऐसा स्फुलिंग जो माया के अधीन है। भक्तगण विनीत होते हैं, अत: यह दिव्य ज्ञान भगवान् से ब्रह्मा को, ब्रह्मा से उनके पुत्रों तथा शिष्यों को क्रमानुसार प्राप्त होता है। इस विधि में ऐसे भक्तों के अन्त:करण में स्थित परमात्मा द्वारा सहायता मिलती है। दिव्य ज्ञान को सीखने की यही सही विधि है।

इस अनुभूति के द्वारा भक्त आत्मा तथा पदार्थ के अन्तर को सही-सही समझ पाता है, क्योंकि आत्मा तथा पदार्थ की गाँठ भगवान् द्वारा खोली जाती है। यह ग्रन्थि अहंकार कहलाती है, जिससे जीव झूठे ही अपने को भौतिक पदार्थ मानता है। अतएव ज्योंही यह ग्रन्थि ढ़ीली पड़ती है, संशय के सारे बादल तुरंत छँट जाते हैं। मनुष्य अपने स्वामी का दर्शन करने लगता है और सकाम कर्मों के बन्धन को समाप्त करके वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लग जाता है। भौतिक जगत में जीव स्वयं सकाम कर्म की शृंखला की सृष्टि करता है और जन्म-जन्मांतर तक इन कर्मों के अच्छे तथा बुरे फलों को भोगता रहता है। किन्तु ज्योंही वह भगवान् की प्रेममय सेवा में लग जाता है, त्योंही वह कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाता है। फिर उसके कर्मों से कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं होती।

 
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