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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 2: दिव्यता तथा दिव्य सेवा  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  1.2.26 
मुमुक्षवो घोररूपान् हित्वा भूतपतीनथ ।
नारायणकला: शान्ता भजन्ति ह्यनसूयव: ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
मुमुक्षव:—मोक्षकामी व्यक्ति; घोर—भयानक; रूपान्—रूपों को; हित्वा—त्याग कर; भूत-पतीन्—देवतागण; अथ— इस कारण से; नारायण—भगवान् के; कला:—स्वांशों; शान्ता:—परम आनन्दमय; भजन्ति—पूजा करते हैं; हि— निश्चय ही; अनसूयव:—द्वेषरहित ।.
 
अनुवाद
 
 जो लोग मोक्ष के प्रति गम्भीर हैं, वे निश्चय ही द्वेषरहित होते हैं और सबका सम्मान करते हैं। किन्तु, फिर भी वे देवताओं के घोर रूपों का अस्वीकार करके, केवल भगवान् विष्णु तथा उनके स्वांशों के कल्याणकारी रूपों की ही पूजा करते हैं।
 
तात्पर्य
 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण जो विष्णु कोटि के रूपों के मूल रूप हैं, वे दो भिन्न कोटियों में अपना विस्तार करते हैं—पूर्ण या समग्र अंश तथा भिन्न अंश। भिन्नांश सेवक हैं और विष्णु-तत्त्व के पूर्णांश सेव्य तथा पूज्य हैं।

भगवान् द्वारा शक्तिप्रदत्त सारे देवता भी भिन्नांश हैं। वे विष्णु-तत्त्व की कोटि में नहीं आते। विष्णु-तत्त्व वे पुरुष हैं, जो भगवान् के आदि रूप के ही समान शक्तिमान हैं और वे विभिन्न कालों तथा परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न कोटि की शक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं। भिन्नांश सीमित शक्ति वाले होते हैं। उनमें विष्णुतत्त्वों की तरह असीम शक्ति नहीं होती। अत: विष्णु-तत्त्वों या भगवान् नारायण के पूर्णांशों की गणना कभी भिन्नांशों के साथ नहीं करनी चाहिए। यदि कोई ऐसा करता है तो वह पाषण्डी अर्थात् पाखंडी होने का अपराध करता है। इस कलियुग में अनेक मूर्ख व्यक्ति ऐसा अवैध अपराध करते हैं और दोनों कोटियों को समान बताते हैं।

ये विभिन्न अंश अपनी-अपनी भौतिक शक्तियों के अनुसार विभिन्न पदों पर आसीन हैं—यथा काल-भैरव, श्मशान-भैरव, शनि, महाकाली तथा चण्डिका। इन देवताओं की पूजा वे ही लोग करते हैं, जो तमोगुण की निम्नतम अवस्था में होते हैं। ब्रह्मा, शिव, सूर्य, गणेश तथा अन्य ऐसे ही देव उन लोगों द्वारा पूजे जाते हैं, जो भौतिक भोग से प्रेरित होने के कारण रजोगुणी होते हैं। किन्तु जो सचमुच सतोगुणी हैं, वे केवल विष्णु-तत्त्वों की पूजा करते हैं। विष्णु-तत्त्वों के अनेक नाम तथा रूप हैं—यथा नारायण, दामोदर, वामन, गोविन्द तथा अधोक्षज।

सुयोग्य ब्राह्मण शालिग्राम शिला द्वारा निरूपित विष्णु-तत्त्वों की पूजा करते हैं और क्षत्रिय तथा वैश्य जैसे कुछ उच्चत्तर वर्ण के लोग भी सामान्यतया विष्णु-तत्त्वों की पूजा करते हैं। सतोगुणी योग्यतम ब्राह्मण कभी भी अन्यों की पूजा विधि से ईर्ष्या नहीं करते। वे अन्य देवताओं का पूर्ण आदर करते हैं, यद्यपि काल-भैरव या महाकाली जैसे देवताओं का रूप अन्यन्त भयानक है। वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर के ये सारे भयानक लक्षण विभिन्न परिस्थितियों में उनके विभिन्न सेवकों के रूप हैं। किन्तु, इतने पर भी, वे देवताओं के भयानक तथा आकर्षक दोनों ही रूपों को त्याग कर केवल विष्णुरूपों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, क्योंकि वे भौतिक जगत से मोक्ष पाने की उत्कट इच्छा रखते हैं। सारे देवता, यहाँ तक कि देवों में सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मा तक, किसी को मोक्ष नहीं दिला सकते। हिरण्यकशिपु ने अमर होने के लिए कठोर तपस्या की थी, किन्तु उसके पूज्य देव ब्रह्मा उसे वैसा वर देकर प्रसन्न नहीं कर सके। इसीलिए विष्णु के अतिरिक्त अन्य कोई मुक्तिपाद या मुक्ति के प्रदाता भगवान् नहीं कहलाते। सारे देवता भी भौतिक सृष्टि के अन्य जीवों की भाँति इस भौतिक सृष्टि के संहार के समय नष्ट हो जाते हैं। जब वे स्वयं मुक्ति नहीं पा सकते तो फिर अपने भक्तों को वे किस तरह मुक्ति दिला सकते हैं? ये देवता अपनी पूजा करने वालों को कुछ क्षणिक लाभ ही प्रदान कर सकते हैं, परम लाभ नहीं।

यही कारण है कि मुमुक्षुजन देवताओं की पूजा का परित्याग करते हैं, यद्यपि वे उनमें से किसी के प्रति असम्मान नहीं दिखाते।

 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥