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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 2: दिव्यता तथा दिव्य सेवा  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  1.2.31 
तया विलसितेष्वेषु गुणेषु गुणवानिव ।
अन्त:प्रविष्ट आभाति विज्ञानेन विजृम्भित: ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
तया—उनके द्वारा; विलसितेषु—यद्यपि कार्य में; एषु—इन; गुणेषु—भौतिक प्रकृति के गुणों में; गुणवान्—गुणों से प्रभावित होने वाला; इव—मानो; अन्त:—भीतर; प्रविष्ट:—घुसा हुआ; आभाति—प्रतीत होता है; विज्ञानेन—दिव्य चेतना से; विजृम्भित:—पूर्ण रूप से प्रकाशित ।.
 
अनुवाद
 
 भौतिक पदार्थ की उत्पत्ति करने के बाद, भगवान् (वासुदेव) अपना विस्तार करके उसमें प्रवेश करते हैं। यद्यपि वे प्रकृति के गुणों में रहते हुए उत्पन्न जीवों में से एक जैसे लगते हैं, किन्तु वे सदैव अपने दिव्य पद पर पूर्ण रूप से आलोकित रहते हैं।
 
तात्पर्य
 जीवात्माएँ भगवान् के विभिन्न अंश-प्रत्यंश हैं और जो बद्ध-जीवात्माएँ आध्यात्मिक जगत में रहने लायक नहीं हैं, उन्हें इस भौतिक जगत में डाल दिया जाता है जिससे वे जी भरकर पदार्थ का भोग कर सकें। परमात्मा के रूप में तथा जीवों के नित्य सखा के तौर पर भगवान् अपने किसी एक पूर्ण अंश के द्वारा जीवों के साथ रहकर उनके भौतिक भोगों में पथप्रदर्शक बनते हैं और उनके सारे कार्यकलापों के साक्षी रहते हैं। जहाँ जीवात्माएँ भौतिक भोग करते हैं, वहीं भगवान् भौतिक वातावरण से प्रभावित हुए बिना अपने दिव्य पद पर बने रहते हैं। श्रुतियों में कहा गया है कि एक वृक्ष पर दो पक्षी हैं।* इनमें से एक वृक्ष का फल खा रहा है और दूसरा उसकी गतिविधियाँ देख रहा है। यह साक्षी भगवान् है और फल को खाने वाला पक्षी जीवात्मा है। फल खाने वाला (जीवात्मा) अपने वास्तविक स्वरूप को भूल गया है और भौतिक जगत के सकाम कर्मों में बुरी तरह व्यस्त है, जब कि भगवान् (परमात्मा) सदैव दिव्य ज्ञान से परिपूर्ण रहते हैं। परमात्मा तथा बद्धजीव में यही अन्तर है। बद्धजीव या जीवात्मा प्रकृति के नियमों के वशीभूत रहता है, जबकि परमात्मा भौतिक शक्ति के नियन्त्रक हैं।

* द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोरन्यन्यौ: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनशन्नन्योऽभिचाकशीति ॥

(मुण्डक उपनिषद् ३.१.१)

 
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