श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 2: दिव्यता तथा दिव्य सेवा  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  1.2.34 
भावयत्येष सत्त्वेन लोकान् वै लोकभावन: ।
लीलावतारानुरतो देवतिर्यङ्‍नरादिषु ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
भावयति—पालन करते हैं; एष:—इन सबका; सत्त्वेन—सतोगुण से; लोकान्—ब्रह्माण्ड भर में; वै—सामान्य रूप से; लोक-भावन:—समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी; लीला—कार्यकलाप; अवतार—अवतार; अनुरत:—भूमिका ग्रहण करते हुए; देव—देवता; तिर्यक्—निम्न पशु; नर-आदिषु—मनुष्यों में ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार सारे ब्राह्माण्डों के स्वामी देवताओं, मनुष्यों तथा निम्न पशुओं से आवासित सारे ग्रहों का पालन-पोषण करने वाले हैं। वे अवतरित होकर शुद्ध सत्त्वगुण में रहने वालों के उद्धार हेतु लीलाएँ करते हैं।
 
तात्पर्य
 भौतिक ब्रह्माण्ड अनगिनत हैं और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में असंख्य ग्रह हैं, जिनमें विविध गुणों वाले विभिन्न कोटि के जीव निवास करते हैं। भगवान् (विष्णु) इनमें से प्रत्येक लोक में तथा प्रत्येक जीव-समूह में अवतरित होते रहते हैं। वे उनके बीच अपनी दिव्य लीलाओं का प्रदर्शन करते हैं, जिससे उनमें भगवान् के धाम वापस जाने की रुचि उत्पन्न हो। भगवान् अपनी मूल दिव्य अवस्था को बदलते नहीं, अपितु देश, काल तथा समाज के अनुसार वे भिन्न भिन्न रूपों में प्रकट होते हैं।

कभी वे स्वयं अवतरित होते हैं तो कभी किसी उपयुक्त जीव को अपना प्रतिनिधि बनाकर उसे शक्ति प्रदान करते हैं, किन्तु प्रत्येक दशा में प्रयोजन एक ही रहता है—भगवान् चाहते हैं कि दुख उठाने वाला जीव उनके पास अर्थात् भगवद्धाम वापस आ जाय। सारे जीव जिस सुख के पीछे दीवाने रहते हैं, वह असंख्य ब्रह्माण्डों में और भौतिक ग्रहों के किसी भी कोने में कहीं भी प्राप्य नहीं है। जीव जिस शाश्वत सुख की कामना करता है, वह केवल भगवान् के धाम में उपलब्ध है, किन्तु विस्मरणशील जीव, प्रकृति के गुणों के वश में आकर, भगवान् के धाम के विषय में कुछ भी नहीं जानता। अत: भगवान् अपने धाम का सन्देश प्रसारित करने के लिए स्वयं अवतरित होते हैं या ईशपुत्र के रूप में अपना प्रामाणिक प्रतिनिधि बनकर आते हैं। ऐसे अवतार या ईशपुत्र, भगवद्-धाम जाने के सन्देश का प्रचार केवल मानव समाज में ही नहीं करते हैं, बल्कि उनका काम सभी समाजों में, देवताओं में तथा मनुष्यों के अतिरिक्त अन्यों में भी चलता रहता है।

 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध के अन्तर्गत “दिव्यता तथा दिव्य सेवा” नामक द्वितीय अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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