हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 2: दिव्यता तथा दिव्य सेवा  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  1.2.6 
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे ।
अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; वै—निश्चय ही; पुंसाम्—मनुष्यों के लिए; पर:—दिव्य; धर्म:—वृत्ति; यत:—जिससे; भक्ति:—भक्ति; अधोक्षजे—अध्यात्म के प्रति; अहैतुकी—अकारण; अप्रतिहता—अखण्ड; यया—जिससे; आत्मा—आत्मा; सुप्रसीदति—पूर्ण रूप से प्रसन्न होता है ।.
 
अनुवाद
 
 सम्पूर्ण मानवता के लिए परम वृत्ति (धर्म) वही है, जिसके द्वारा सारे मनुष्य दिव्य भगवान् की प्रेमा-भक्ति प्राप्त कर सकें। ऐसी भक्ति अकारण तथा अखण्ड होनी चाहिए जिससे आत्मा पूर्ण रूप से तुष्ट हो सके।
 
तात्पर्य
 इस कथन के द्वारा श्री सूत गोस्वामी नैमिषारण्य के ऋषियों के प्रथम प्रश्न का उत्तर देते हैं। ऋषियों ने सूत जी से अनुरोध किया था कि वे समस्त प्रामाणिक शास्त्रों का सार प्रस्तुत करें, जिससे पतितात्माएँ या जनसामान्य उसे सरलता से ग्रहण कर सके। वेदों में मनुष्य के लिए दो प्रकार की वृत्तियाँ बताई गई हैं। एक प्रवृत्ति-मार्ग या इन्द्रिय-भोग का मार्ग कहलाती है और दूसरी निवृत्ति-मार्ग या त्याग का मार्ग कहलाती है। भोग का मार्ग निकृष्ट है और परम कारण के हेतु निवृति का मार्ग श्रेष्ठ है। जीव का भौतिक जीवन एक प्रकार से वास्तविक जीवन की रुग्ण अवस्था है। वास्तविक जीवन तो ब्रह्मभूत अवस्था अर्थात् आध्यात्मिक अस्तित्व है, जहाँ जीवन सनातन, आनन्दमय तथा ज्ञान से परिपूर्ण है। भौतिक जीवन नाशवान, मोहपूर्ण तथा कष्टमय है। इसमें सुख तो है ही नहीं। यहाँ केवल कष्टों से छुटकारा पाने का व्यर्थ प्रयास मात्र है और कष्टों का क्षणिक नाश मिथ्या ही सुख कहलाता है। अत: बढ़ते जाने वाले भौतिक भोग का मार्ग नाशवान, कष्टमय तथा मोहपूर्ण होने के कारण निकृष्ट है। किन्तु भगवद्भक्ति श्रेष्ठ धर्म कहलाती है, क्योंकि वह मनुष्य को सनातन, आनन्दमय एवं ज्ञान से परिपूर्ण जीवन की ओर अग्रसर करती है। जब इसमें निकृष्ट गुण मिल जाते हैं तो यह कभी-कभी दूषित हो जाती है। उदाहरणार्थ, भौतिक लाभ के लिये की गई भक्तिमय सेवा प्रगतिशील निवृत्ति मार्ग में बाधक है। इस रुग्ण जीवन को भोगने की अपेक्षा संन्यास या सर्वत्याग श्रेष्ठतर वृत्ति है। ऐसे भोग से केवल रोग के लक्षण बढ़ते हैं और उसकी अवधि भी बढ़ जाती है। अत: भगवद्भक्ति शुद्ध होनी चाहिए, अर्थात् उसमें भौतिक सुखोपभोग की रंचमात्र कामना नहीं रहनी चाहिए। अत: मनुष्य को चाहिए कि वृथा की कामना, सकाम कर्म तथा दार्शनिक तर्क-वितर्क से रहित भगवद्भक्ति रूपी उच्च कोटि की वृत्ति को स्वीकार करे। इसीसे उनकी सेवा में शाश्वत सन्तोष प्राप्त होगा।

हमने जानबूझ कर धर्म को वृत्ति कहा है, क्योंकि धर्म शब्द का मूल अर्थ है “वह जो किसी के अस्तित्व को सम्हाले रखता है।” जीव के अस्तित्व इसी बात पर निर्भर है कि वह अपने कार्यों को भगवान् कृष्ण के साथ अपने सनातन सम्बन्ध में समन्वित करे। कृष्ण समस्त जीवों के मध्यवर्ती घुरी हैं और वे अन्य समस्त जीवों अथवा शाश्वत रूपों में सर्वाकर्षक व्यक्तित्व हैं। प्रत्येक एवं समस्त जीवों का दिव्य जगत में एक शाश्वत रूप होता है और कृष्ण उन सबों के लिए परम आकर्षक हैं। कृष्ण परम पूर्ण हैं और अन्य सभी उनके अंश-प्रत्यंश हैं। इनमें सेवक तथा सेव्य का सम्बन्ध है; यह दिव्य है और हमारे भौतिक अनुभव से सर्वथा भिन्न है। यह सेवक- सेव्य भाव घनिष्ठता का सर्वाधिक अनुकूल रूप है। जैसे जैसे भक्तिमय सेवा की प्रगति होगी, मनुष्य को इसका अनुभव होगा। हर व्यक्ति को इस भौतिक अस्तित्व की बद्ध अवस्था में भी भगवान् की दिव्य प्रेमा-भक्ति करनी चाहिए। इससे मनुष्य को क्रमश: वास्तविक जीवन का संकेत प्राप्त हो सकेगा और पूर्ण तुष्टि का आनंद मिलेगा।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥