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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 2: दिव्यता तथा दिव्य सेवा  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  1.2.7 
वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित: ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
वासुदेवे—कृष्ण के प्रति; भगवति—भगवान् के प्रति; भक्ति-योग:—भक्ति सम्बन्ध; प्रयोजित:—व्यवहृत; जनयति— उत्पन्न करता है; आशु—तुरन्त ही; वैराग्यम्—वैराग्य, विरक्ति; ज्ञानम्—ज्ञान; —तथा; यत्—जो; अहैतुकम्— अकारण ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरन्त ही अहैतुक ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है।
 
तात्पर्य
 भगवान् कृष्ण की भक्तिमय सेवा को जो लोग भौतिक भावात्मक व्यापार की भाँति मानते हैं, वे यह तर्क कर सकते हैं कि शास्त्रों में तो यज्ञ, दान, तपस्या, ज्ञान, योग तथा इसी प्रकार की दिव्य साक्षात्कार की विधियों की संस्तुति की गई है। उनके मतानुसार भक्ति अर्थात् भगवान् की भक्तिमय सेवा तो उन लोगों के लिए है, जो उच्च कोटि के कर्म नहीं कर पाते। सामान्यत: यह कहा जाता है कि भक्ति उपासना-पद्धति तो शूद्रों, वैश्यों तथा अल्पबुद्धिमान स्त्री वर्ग के लिए है। किन्तु यह वास्तविक तथ्य नहीं है। भक्ति मार्ग समस्त दिव्य कर्मों में सर्वोपरि है। फलत: यह उत्कृष्ट होने के साथ ही साथ सरल भी है। यह उन शुद्ध भक्तों के लिए उत्कृष्ट है, जो परमेश्वर से सम्पर्क स्थापित करना चाहते हैं, और यह उन नवदीक्षितों के लिए सुगम है, जो भक्ति रूपी घर की दहलीज पर हैं। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करना एक महान विज्ञान है और यह सब जीवों के लिए खुला हुआ है, जिसमें शूद्र, वैश्य, स्त्रियाँ तथा शूद्र से भी निम्नकुल में उत्पन्न लोग सम्मिलित हैं, तो फिर गुणसम्पन्न ब्राह्मणों तथा महान स्वरूपसिद्ध राजाओं जैसे उच्च कोटि के लोगों के विषय में कहना ही है? यज्ञ, दान, तप इत्यादि नाम से प्रचलित अन्य उच्च कोटि के कार्य: ये सभी सूत्र—उप सिद्धान्त हैं जो शुद्ध तथा वैज्ञानिक भक्ति-पद्धति का अनुगमन करते हैं।

दिव्य अनुभूति के मार्ग में ज्ञान तथा वैराग्य के सिद्धान्त दो महत्त्वपूर्ण कारक हैं। सम्पूर्ण आध्यात्मिक विधि भौतिक तथा आध्यात्मिक प्रत्येक वस्तु के पूर्ण ज्ञान तक ले जाती है और इस पूर्ण ज्ञान का फल यह होता है कि मनुष्य भौतिक राग से विरक्त होकर आध्यात्मिक कार्यों में अनुरक्त हो जाता है। भौतिक राग से विरक्त होने का अर्थ पूर्ण रूप से निष्क्रिय हो जाना नहीं है, जैसाकि अल्पज्ञान वाले लोग सोचते हैं। नैष्कर्म का अर्थ है, ऐसे कर्म न करना जिनका अच्छा या बुरा प्रभाव पड़े। निषेध का अर्थ सकारात्मक का निषेध नहीं है। अनावश्यक कार्यों का निषेध अनिवार्य का निषेध नहीं है। इसी प्रकार भौतिक रूपों से विरक्ति का अर्थ सकारात्मक रूप को नकारना नहीं है। भक्ति उपासना-पद्धति तो सकारात्मक रूप की अनुभूति के लिए निर्मित है। जब सकारात्मक रूप का साक्षात्कार हो जाता है, तो नकारात्मक रूप स्वत: विलग हो जाते हैं। अत: भक्ति उपासना-पद्धति के विकास के साथ-साथ, वास्तविक रूप की सकारात्मक सेवा में व्यावहारिक रूप से जुड़ जाने से मनुष्य सहज रूप से निम्न कोटि की वस्तुओं से विलग होता जाता है और श्रेष्ठ वस्तुओं से जुड़ जाता है। इसी प्रकार भक्ति उपासना-पद्धति जीव का सर्वोच्च धर्म होने के कारण वह उसे भौतिक इन्द्रिय सुख से बाहर निकालती है। यही शुद्ध भक्त का लक्षण है। वह न तो मूर्ख होता है, न ही वह निकृष्ट शक्तियों में लगा रहता है, और न ही उसके पास भौतिक मूल्य होते हैं। यह केवल शुष्क चिन्तन से सम्भव नहीं। यह तो केवल भगवत्कृपा से ही सम्भव हो पाता है। निष्कर्ष यह है कि जो शुद्ध भक्त है वह अन्य सभी उत्तम गुणों से पूर्ण होता है यथा—ज्ञान, वैराग्य आदि, किन्तु जिसमें केवल ज्ञान तथा वैराग्य होता है वह भक्ति उपासना पद्धति के नियमों से ठीक से परिचित हो, यह आवश्यक नहीं है। भक्ति मानवजाति का सर्वश्रेष्ठ धर्म है।

 
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