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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 2: दिव्यता तथा दिव्य सेवा  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  1.2.9 
धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते ।
नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृत: ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
धर्मस्य—वृत्ति का; हि—निश्चय ही; आपवर्ग्यस्य—अन्तिम मोक्ष का; —नहीं; अर्थ:—अन्त, लक्ष्य; अर्थाय—भौतिक लाभ के लिए; उपकल्पते—साधन के हेतु; —न तो; अर्थस्य—भौतिक लाभ का; धर्म-एक-अन्तस्य—धर्म में लगे हुए के लिए; काम:—इन्द्रियतृप्ति के; लाभाय—लाभ हेतु; हि—सही सही; स्मृत:—ऋषियों द्वारा बताया गया है ।.
 
अनुवाद
 
 समस्त वृत्तिपरक कार्य निश्चय ही परम मोक्ष के निमित्त होते हैं। उन्हें कभी भौतिक लाभ के लिए सम्पन्न नहीं किया जाना चाहिए। इससे भी आगे, ऋषियों के अनुसार, जो लोग परम वृत्ति (धर्म) में लगे हैं, उन्हें चाहिए कि इन्द्रियतृप्ति के संवर्धन हेतु भौतिक लाभ का उपयोग कदापि नहीं करना चाहिए।
 
तात्पर्य
 हम पहले ही बता चुके हैं कि पूर्ण ज्ञान तथा भौतिक अस्तित्व से विरक्ति भगवान् की शुद्ध भक्तिमय सेवा के पीछे-पीछे स्वत: आ जाते हैं। किन्तु कुछ लोग ऐसे हैं जो मानते हैं कि धर्म सहित समस्त प्रकार की वृत्तियाँ, भौतिक लाभ के निमित्त हैं। संसार के किसी भी भाग में किसी भी साधारण व्यक्ति की सामान्य प्रवृत्ति यही होती है कि धार्मिक या अन्य वृत्ति के बदले कोई न कोई भौतिक लाभ प्राप्त हो। यहाँ तक कि वैदिक साहित्य में भी, समस्त धार्मिक कृत्यों के लिए भौतिक लाभ का प्रलोभन दिया गया है और अधिकांश लोग ऐसे धार्मिकता के प्रलोभनों अथवा आशीर्वादों के प्रति आकृष्ट होते हैं। तो फिर ऐसे तथाकथित धार्मिक लोग भौतिक लाभों के प्रति क्यों आकृष्ट होते हैं? क्योंकि भौतिक लाभ से इच्छाओं की पूर्ति हो सकती है और इच्छाओं की पूर्ति से इन्द्रियतुष्टि होती है। वृत्तियों के इस चक्र में तथाकथित धार्मिकता भी आती है, जिसके बाद भौतिक लाभ और भौतिक लाभ के बाद इच्छापूर्ति होती है। इन्द्रियतृप्ति पूरी तरह से व्यस्त समस्त प्रकार के व्यक्तियों का सामान्य मार्ग है। किन्तु श्रीमद्भागवत के निर्णय अनुसार, इस श्लोक में सूत गोस्वामी के कथन द्वारा इसका निषेध किया गया है।

मनुष्य को चाहिए कि केवल भौतिक लाभ के लिए ही कोई वृत्ति न अपनाये। न ही भौतिक लाभ का उपयोग इन्द्रियतृप्ति के लिए किया जाय। भौतिक लाभ का सदुपयोग किस प्रकार किया जा सकता है, इसका वर्णन आगे हुआ है।

 
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