सूत: उवाच—सूत ने कहा; जगृहे—स्वीकार किया; पौरुषम्—पुरुष अवतार रूप में पूर्णांश; रूपम्—रूप; भगवान्— भगवान्; महत्-आदिभि:—भौतिक जगत के अवयवों सहित; सम्भूतम्—इस तरह उत्पन्न; षोडश-कलम्—सोलह मुख्य सिद्धान्त; आदौ—प्रारम्भ में; लोक—ब्रह्माण्ड; सिसृक्षया—उत्पन्न करने के विचार से ।.
अनुवाद
सूतजी ने कहा : सृष्टि के प्रारम्भ में, भगवान् ने सर्वप्रथम विराट पुरुष अवतार के रूप में अपना विस्तार किया और भौतिक सृजन के लिए सारी सामग्री प्रकट की। इस प्रकार सर्वप्रथम भौतिक क्रिया के सोलह तत्त्व उत्पन्न हुए। यह सब भौतिक ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के लिए किया गया।
तात्पर्य
भगवद्गीता का मत है कि भगवान् कृष्ण अपने पूर्णांशों के विस्तार से इन भौतिक ब्रह्माण्डों का पालन करते हैं। अत: यह पुरुष रूप उसी सिद्धान्त की पुष्टि है। आदि भगवान् वासुदेव या कृष्ण भगवान् जो राजा वसुदेव या राजा नन्द के पुत्र के रूप में विख्यात हैं, समस्त ऐश्वर्यों, शक्तियों, यश, सौंदर्य, ज्ञान तथा वैराग्य से परिपूर्ण हैं। उनके ऐश्वर्यों का एक अंश निराकार ब्रह्म के रूप में प्रकट होता है, तो एक अंश परमात्मा रूप में। उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण का यह पुरुष रूप भगवान् का मूल परमात्मा स्वरूप है। भौतिक सृष्टि में तीन पुरुष रूप होते हैं और यह रूप, जो कारणोदकशायी विष्णु कहलाता है, तीनों में से प्रथम है। अन्य रूप हैं, गर्भोदकशायी विष्णु तथा क्षीरोदकशायी विष्णु जिनके बारे में हम क्रमश: जानेंगे। इन कारणोदकशायी विष्णु के रोमकूपों से असंख्य ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति होती है और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में भगवान् गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रवेश करते हैं।
भगवद्गीता में यह भी उल्लेख है कि भौतिक जगत निश्चित अवधि के लिए उत्पन्न किया जाता है और फिर विनष्ट कर दिया जाता है। यह सृजन तथा संहार बद्धजीवों या नित्य बद्धजीवों के कारण भगवान् की इच्छा से किया जाता है। नित्य बद्धजीवों में वैयक्तिक भाव या अहंकार होता है, जो उन्हें इन्द्रिय-भोग का आदेश देता है, क्योंकि स्वाभाविक रूप से उन्हें ये भोग नहीं मिल सकते। भगवान् ही एकमात्र भोक्ता हैं और शेष सब भोग्य हैं। जीव पराधीन भोक्ता हैं। लेकिन नित्य बद्धजीव इस स्वाभाविक अवस्था को भूल जाने के कारण ही भोग की दृढ़ इच्छा करता है। बद्धजीवों को भौतिक जगत में पदार्थ को भोगने का अवसर दिया जाता है, किन्तु इसके साथ ही साथ उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप समझने का अवसर भी प्रदान किया जाता है। जो जीव इतने भाग्यशाली होते हैं कि भौतिक संसार में अनेकानेक जन्मों के बाद इस सत्य को ग्रहण करके वासुदेव के चरणकमलों की शरण में जाते हैं, वे नित्यमुक्त जीवों के साथ भगवान् के धाम में प्रवेश करने के अधिकारी होते हैं। इसके पश्चात् ऐसे भाग्यशाली जीवों को समय समय पर सृजित इस भौतिक सृष्टि में आने की आवश्यकता नहीं पड़ती। किन्तु जो जीव स्वाभाविक सत्य को ग्रहण नहीं कर पाते, वे इस सृष्टि के प्रलय के समय महत्-तत्त्व में पुन: मिल जाते हैं। जब पुन: सृष्टि होती है तो यह महत्-तत्त्व पुन: उन्मुक्त होता है। इस महत्-तत्त्व में भौतिक प्राकट्य की सारी सामग्री विद्यमान होती है, जिनमें बद्धजीव भी सम्मिलित रहते हैं। मूलत: यह महत्- तत्त्व सोलह अंशों में विभक्त किया जाता है। ये हैं—पाँच स्थूल भौतिक तत्त्व तथा ग्यारह कर्मेन्द्रियाँ। यह स्वच्छ आकाश में बादल के समान होता है। आध्यात्मिक आकाश में ब्रह्म का तेज चतुर्दिक् फैला रहता है और समग्र मंडल दिव्य प्रकाश से जाज्वल्यमान रहता है। इस विस्तृत असीम आध्यात्मिक आकाश के किसी कोने में महत्-तत्त्व एकत्र होता है और आकाश का जितना भाग महत्-तत्त्व से ढका रहता है वह भौतिक आकाश कहलाता है। महत्-तत्त्व का यह भाग सम्पूर्ण आध्यात्मिक आकाश का नगण्य अंश होता है। इस महत्-तत्त्व के भीतर असंख्य ब्रह्माण्ड रहते हैं। ये सारे बह्माण्ड कारणोदकशायी विष्णु या महाविष्णु के द्वारा भौतिक आकाश पर केवल दृष्टिपात करने से उत्पन्न होते हैं।
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