अष्टमे—आठवाँ अवतार; मेरुदेव्याम् तु—की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से; नाभे:—राजा नाभि; जात:—जन्म लिया; उरुक्रम:—सर्वथा शक्तिमान भगवान्; दर्शयन्—दिखाया; वर्त्म—रास्ता; धीराणाम्—पूर्ण लोगों का; सर्व—सभी; आश्रम—जीवन के चारों आश्रमों द्वारा; नमस्कृतम्—समादरित, वंदनीय ।.
अनुवाद
आठवाँ अवतार राजा ऋषभ के रूप में हुआ। वे राजा नाभि तथा उनकी पत्नी मेरुदेवी के पुत्र थे। इस अवतार में भगवान् ने पूर्णता का मार्ग दिखलाया जिसका अनुगमन उन लोगों द्वारा किया जाता है, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप से संयमित कर लिया है और जो सभी वर्णाश्रमों के लोगों द्वारा वन्दनीय हैं।
तात्पर्य
मानव समाज स्वाभाविक रूप से जीवन के आश्रमों तथा वर्णों के अनुसार आठ वर्गों में विभाजित है—चार वृत्तिपरक तथा चार सांस्कृतिक उत्थान से सम्बद्ध विभाग। बुद्धिजीवी वर्ग, शासक वर्ग, उत्पादक वर्ग और श्रमजीवी वर्ग—ये चार वृत्तिपरक वर्ग हैं। विद्यार्थी जीवन, गृहस्थ जीवन, वानप्रस्थ जीवन एवं संन्यासी जीवन—ये आध्यात्मिक साक्षात्कार के पथ पर सांस्कृतिक उत्थान के चार सोपान हैं। इनमें से संन्यास आश्रम सर्वोच्च माना जाता है और संन्यासी समस्त वर्णों एवं आश्रमों का वैधानिक गुरु होता है। संन्यास आश्रम में भी सिद्धावस्था के लिए चार अवस्थाएँ होती हैं—कुटीचक, बहूदक, परिव्राजकाचार्य तथा परमहंस। परमहंस अवस्था सिद्धि की चरमावस्था है। सभी इस आश्रम का आदर करते हैं। राजा नाभि तथा मेरुदेवी के पुत्र महाराज ऋषभ भगवान् के अवतार थे। उन्होंने अपने पुत्रों को तपस्या द्वारा सिद्धि मार्ग का पालन करने का उपदेश दिया, क्योंकि तपस्या से जीवन पवित्र बनता है और मनुष्य को आध्यात्मिक सुख का लाभ होता है, जो दिव्य है और निरन्तर बढऩे वाला है। प्रत्येक जीव सुख की खोज में रहता है, किन्तु कोई यह नहीं जानता कि शाश्वत एवं असीम सुख कहाँ उपलब्ध होगा। मूर्ख लोग वास्तविक सुख के स्थान पर भौतिक इन्द्रिय-सुख की खोज करते हैं, किन्तु ऐसे मूर्ख लोग यह भूल जाते हैं कि इस प्रकार का अस्थायी तथाकथित इन्द्रिय-सुख तो कूकर-सूकर भी भोगते हैं। कोई भी पशु, पक्षी या जन्तु इस इन्द्रिय-सुख से वंचित नहीं है। प्रत्येक योनि में, जिसमें मनुष्य योनि भी सम्मिलित है, ऐसा सुख प्रचुरता से उपलब्ध होता है। किन्तु मनुष्य जीवन ऐसे सस्ते सुख के निमित्त नहीं मिला है। मनुष्य जीवन तो आत्म-साक्षात्कार द्वारा शाश्वत तथा असीम सुख प्राप्त करने के लिए मिला है। यह आत्म-साक्षात्कार तपस्या अर्थात् स्वेच्छा से कष्ट सहकर तथा भौतिक सुख से दूर रहकर ही प्राप्त किया जा सकता है। जो लोग भौतिक आनन्द से अपने को पृथक् रखने में पटु हैं, वे धीर अर्थात् इन्द्रियों द्वारा विचलित न होने वाले व्यक्ति कहलाते हैं। केवल ऐसे ही धीर व्यक्ति संन्यास आश्रम ग्रहण कर सकते हैं और क्रमश: परमहंस पद को प्राप्त कर सकते हैं, जिसकी पूजा समाज का हर व्यक्ति करता है। राजा ऋषभ ने इस सन्देश का प्रचार किया और अन्तिम समय वे समस्त शारीरिक आवश्यकताओं से विलग हो गये, जो दुर्लभ अवस्था है जिसका अनुकरण मूर्ख नहीं कर पाते, लेकिन सभी लोग इसकी पूजा करते हैं।
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