ऋषिभिर्याचितो भेजे नवमं पार्थिवं वपु: ।
दुग्धेमामोषधीर्विप्रास्तेनायं स उशत्तम: ॥ १४ ॥
शब्दार्थ
ऋषिभि:—मुनियों द्वारा; याचित:—माँगे जाने पर; भेजे—स्वीकार किया; नवमम्—नवाँ; पार्थिवम्—पृथ्वी के शासक; वपु:—शरीर; दुग्ध—दुहते हुए; इमाम्—ये सब; ओषधी:—पृथ्वी की उपजें; विप्रा:—हे ब्राह्मणों; तेन—के द्वारा; अयम्—यह; स:—वह; उशत्तम:—अत्यन्त आकर्षक ।.
अनुवाद
हे ब्राहणों, मुनियों द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, भगवान् ने नवें अवतार में राजा (पृथु) का शरीर स्वीकार किया जिन्होंने विविध उपजें प्राप्त करने के लिए पृथ्वी को जोता। फलस्वरूप पृथ्वी अत्यन्त सुन्दर तथा आकर्षक बन गई।
तात्पर्य
राजा पृथु के उत्पन्न होने के पूर्व, उनके पापी पिता के कुशासन के कारण, अत्यन्त अशान्ति छाई थी। बुद्धिमान व्यक्तियों (अर्थात् मुनियों तथा ब्राह्मणों) ने भगवान् से न केवल अवतरित होने के लिए प्रार्थना की, अपितु उन्होंने इस राजा को सिंहासन से उतार भी दिया। राजा का कर्तव्य है कि वह पवित्र हो और अपनी प्रजा के सर्वांगीण कल्याण का ध्यान रखे। राजा जब भी अपने कर्तव्य-पालन में कुछ असावधानी बरते, तो बुद्धिमान व्यक्तियों को चाहिए कि उसे सिंहासन से उतार दें। किन्तु ये बुद्धिमान व्यक्ति खुद सिंहासन पर नहीं बैठते, क्योंकि उनके जिम्मे जनकल्याण के और भी अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य रहते हैं। अत: राजसिंहासन पर न बैठकर, उन्होंने भगवान् से अवतार लेने की प्रार्थना की और भगवान् महाराज पृथु के रूप में प्रकट हुए। असली बुद्धिमान व्यक्ति या योग्य ब्राह्मण कभी भी राजनैतिक पदों की चाह नहीं करते। महाराज पृथु ने पृथ्वी से अनेक उत्पाद खोज निकाले। ऐसा राजा प्राप्त करके, न केवल प्रजा प्रसन्न हुई, अपितु पृथ्वी का सारा दृश्य भी सुन्दर तथा आकर्षक हो गया।
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