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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 3: समस्त अवतारों के स्रोत : कृष्ण  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  1.3.16 
सुरासुराणामुदधिं मथ्नतां मन्दराचलम् ।
दध्रे कमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभु: ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
सुर—आस्तिकों; असुराणाम्—तथा नास्तिकों का; उदधिम्—समुद्र में; मथ्नताम्—मंथन करते हुए; मन्दराचलम्— मन्दराचल पर्वत को; दध्रे—धारण किया; कमठ—कच्छप; रूपेण—के रूप में; पृष्ठे—पीठ पर; एकादशे—ग्यारहवाँ; विभु:—महान ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् का ग्यारहवाँ अवतार कच्छप के रूप में हुआ, जिनकी पीठ ब्रह्माण्ड के आस्तिकों तथा नास्तिकों के द्वारा मथानी के रूप में प्रयुक्त किये जा रहे मन्दराचल पर्वत के लिए आधार बनी।
 
तात्पर्य
 एक बार आस्तिक तथा नास्तिक दोनों ही समुद्र से अमृत निकालने में जुटे थे, जिससे वे सब प्राप्त अमृत पीकर अमर हो सकें। उस समय मन्दराचल पर्वत मथानी की तरह प्रयुक्त किया गया और समुद्र के जल में भगवान् के अवतार कच्छप की पीठ को पर्वत के लिए आधार बनाया गया।
 
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