यस्य—जिसके; अम्भसि—जल में; शयानस्य—लेटे हुए; योग-निद्राम्—ध्यान में सोये हुए; वितन्वत:—विस्तार करते हुए; नाभि—नाभि रूपी; ह्रद—सरोवर के; अम्बुजात्—कमल से; आसीत्—प्रकट हुआ; ब्रह्मा—जीवों के पितामह; विश्व—ब्रह्माण्ड का; सृजाम्—शिल्पी; पति:—स्वामी ।.
अनुवाद
पुरुष के एक अंश ब्रह्माण्ड के जल के भीतर लेटते हैं, उनके शरीर के नाभि-सरोवर से एक कमलनाल अंकुरित होता है और इस नाल के ऊपर खिले कमल-पुष्प से ब्रह्माण्ड के समस्त शिल्पियों के स्वामी ब्रह्मा प्रकट होते हैं।
तात्पर्य
प्रथम पुरुष कारणोदकशायी विष्णु हैं। उनकी त्वचा के छिद्रों से असंख्य ब्रह्माण्ड उत्पन्न होते हैं और यह पुरुष इन प्रत्येक ब्रह्माण्डों में गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रवेश कर जाते हैं। वे आधे ब्रह्माण्ड में लेटे हुए हैं, जो उनके शरीर के जल से भर जाता है। इन गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से एक कमलनाल निकलता है, जो ब्रह्मा का जन्मस्थल है। ब्रह्माजी समस्त जीवों के पिता हैं और ब्रह्माण्ड की सुघड़ अभिकल्पना तथा संचालन में लगे समस्त देवता रूप शिल्पियों के स्वामी हैं। इस कमलनाल के भीतर ग्रहमंडल के चौदह लोक हैं, जिनमें से पृथ्वीग्रह तथा वैसे ही अन्य ग्रह मध्य में स्थित हैं। इसके ऊपर की ओर उत्तम ग्रहमंडल हैं और सबसे ऊपरी लोक ब्रह्मलोक या सत्यलोक कहलाता है। पृथ्वी-ग्रहमंडल से नीचे की ओर सात अधोलोक हैं, जिनमें असुर तथा अन्य ऐसे ही भौतिकतावादी जीव निवास करते हैं।
गर्भोदकशायी विष्णु से क्षीरोदकशायी विष्णु का विस्तार होता है, जो समस्त जीवों के सामूहिक परमात्मा हैं। वे हरि कहलाते हैं और उन्हीं से ब्रह्माण्ड के सारे अवतारों का विस्तार होता है।
अतएव निष्कर्ष यह निकला कि पुरुष-अवतार तीन रूपों में प्रकट होते हैं—पहले कारणोदकशायी हैं, जो महत्-तत्त्व में समग्र भौतिक तत्त्वों को उत्पन्न करते हैं, दूसरे गर्भोदकशायी हैं, जो प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रवेश करते हैं और तीसरे क्षीरोदकशायी विष्णु हैं, जो प्रत्येक भौतिक पदार्थ—चाहे वह जैव हो या अजैव—सबके परमात्मा हैं। जो व्यक्ति भगवान् के इन पूर्ण रूपों को जानता है, वह ईश्वर को ठीक से समझता है। इस तरह का ज्ञाता जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि की भौतिक स्थिति से मुक्त हो जाता है, जैसा कि भगवद्गीता में भी इसकी पुष्टि हुई है। इस श्लोक में महाविष्णु के विषय में सारांश दिया गया है। महाविष्णु अपनी मुक्त इच्छा से आध्यात्मिक आकाश के कुछ भाग में लेटे रहते हैं। इस तरह वे कारण सागर में लेटे हुए प्रकृति पर दृष्टि फेरते हैं, जिससे तुरन्त महत्-तत्त्व की सृष्टि होती है। इस प्रकार से भगवान् की शक्ति से विद्युत्-उन्मेषित होकर प्रकृति अनेक ब्रह्माण्डों को जन्म देती है, जिस प्रकार समय आने पर वृक्ष में असंख्य फल लग जाते हैं। वृक्ष का बीज बोने वाला किसान होता है और समय पाकर वृक्ष या लता में अनेक फल प्रकट होते हैं। कोई भी घटना किसी कारण के बिना नहीं घटती। इसीलिए कारण-सागर कारणार्णव कहलाता है। हमें मूर्खतावश सृष्टि के नास्तिकतावादी सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करना चाहिए। भगवद्गीता में नास्तिकों का वर्णन हुआ है। नास्तिक सृष्टा पर विश्वास नहीं करता, किन्तु वह सृष्टि का कोई अच्छा सिद्धान्त भी नहीं दे सकता। भौतिक प्रकृति में पुरुष के बिना सृजन करने की शक्ति नहीं है, जिस प्रकार कि प्रकृति अर्थात् स्त्री, पुरुष के बिना अर्थात् नर से सम्बन्ध स्थापित किये बिना शिशु उत्पन्न नहीं कर सकती। पुरुष गर्भाधान करता है और प्रकृति प्रसव करती है। जिस प्रकार बकरे के गले में लगी मांसल थैलियों से दूध की आशा नहीं की जा सकती, यद्यपि वे स्तन जैसी लगती हैं, उसी प्रकार हमें भौतिक तत्त्वों से किसी प्रकार की सृजनात्मक शक्ति की आशा नहीं करनी चाहिए। हमें पुरुष की शक्ति में विश्वास करना चाहिए, जो प्रकृति का गर्भाधान करने वाले हैं। चूँकि भगवान् की इच्छा ध्यानमग्न होकर लेटने की थी, अत: भौतिक शक्ति ने तुरन्त असंख्य ब्रह्माण्ड उत्पन्न कर दिये और इनमें से प्रत्येक में भगवान् लेट गये। इस प्रकार भगवान् की इच्छा से तुरन्त ही सारे ग्रह तथा विभिन्न सामग्री उत्पन्न हो गई। भगवान् में अनन्त शक्तियाँ हैं, अत: वे इच्छानुसार अपनी योजना पूरी करते हुए कार्य कर सकते हैं, यद्यपि वे स्वयं कुछ नहीं करते। कोई न तो उनके तुल्य है, न उनसे बढक़र। यही वेदों का निर्णय है।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.