श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 3: समस्त अवतारों के स्रोत : कृष्ण  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  1.3.21 
तत: सप्तदशे जात: सत्यवत्यां पराशरात् ।
चक्रे वेदतरो: शाखा द‍ृष्ट्वा पुंसोऽल्पमेधस: ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
तत:—तत्पश्चात्; सप्तदशे—सत्रहवें अवतार में; जात:—उत्पन्न हुआ; सत्यवत्याम्—सत्यवती के गर्भ से; पराशरात्— पराशर मुनि द्वारा; चक्रे—तैयार किया; वेद-तरो:—वेदों के कल्पवृक्ष की; शाखा:—शाखाएँ; दृष्ट्वा—देखकर; पुंस:— सामान्य जन; अल्प-मेधस:—अल्पज्ञ ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् सत्रहवें अवतार में भगवान्, पराशर मुनि के माध्यम से सत्यवती के गर्भ से श्री व्यासदेव के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने यह देखकर कि जन-सामान्य अल्पज्ञ हैं, एकमेव वेद को अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं में विभक्त कर दिया।
 
तात्पर्य
 मूल रूप से वेद एक है। किन्तु श्रील व्यासदेव ने मूल वेद को चार में विभाजित कर दिया—साम, यजुर्, ऋग्, तथा अथर्व—और तब इन सबकी व्याख्या पुराणों तथा महाभारत जैसी विविध शाखाओं के रूप में की। सामान्य लोगों के लिए वैदिक भाषा तथा विषय अत्यन्त कठिन होते हैं। उन्हें केवल अत्यन्त बुद्धिमान तथा स्वरूप-सिद्ध ब्राह्मण ही समझ सकते हैं। किन्तु वर्तमान कलियुग तो अज्ञानी मनुष्यों से भरा पड़ा है। यहाँ तक कि ब्राह्मण पिता से उत्पन्न होने वाली सन्तान भी वर्तमान युग में शूद्रों या स्त्रियों से श्रेष्ठ नहीं होती। द्विजों अर्थात् ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सांस्कृतिक शुद्धिकरण की प्रक्रिया अर्थात् ‘संस्कार’ सम्पन्न करेंगे, किन्तु वर्तमान युग के बुरे प्रभावों के कारण तथाकथित ब्राह्मण तथा अन्य उच्च वर्ग के लोग भी सुसंस्कृत नहीं रह गये। वे द्विज-बन्धु कहलाते हैं जिसका अर्थ है द्विजों के मित्र तथा परिजन। लेकिन इन द्विज-बन्धुओं की गिनती शूद्रों तथा स्त्रियों में की जाती है। श्रील व्यासदेव ने द्विज-बन्धुओं, शूद्रों तथा स्त्रियों जैसे अल्पज्ञों को ध्यान में रखकर वेदों को विविध शाखाओं-प्रशाखाओं में विभाजित किया।
 
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