उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश (कलाएं) हैं, लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं। वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं। भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं।
तात्पर्य
इस विशिष्ट श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण को अन्य अवतारों से पृथक् किया गया है। उनकी गणना अवतारों में की जाती है, क्योंकि अहैतुकी कृपावश वे अपने दिव्य धाम से अवतरित होते हैं। ‘अवतार’ का अर्थ होता है, “नीचे उतरने वाला।” भगवान् के सारे अवतार, जिसमें स्वयं भगवान् सम्मिलित हैं, विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भौतिक जगत के विभिन्न लोकों में तथा विभिन्न योनियों में अवतरित होते हैं। कभी वे स्वयं आते हैं और कभी उनके अलग अलग पूर्णांश (अंश) या अंशांश (कला) या फिर उनके द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से आवेशित अंश इस भौतिक जगत में विशिष्ट कार्यों को सम्पन्न करने के लिए अवतरित होते हैं। भगवान् मूल रूप से समस्त ऐश्वर्य, सामर्थ्य, यश, सौंदर्य, ज्ञान तथा वैराग्य से पूर्ण होते हैं। जब ये पूर्णांशों या अंशांशों द्वारा अंशत: प्रकट होते हैं, तो यह समझना चाहिए कि उन विशिष्ट कार्यों के लिए उनकी विभिन्न शक्तियों के प्राकट्य की आवश्यकता होती है। जब कमरे में बिजली के छोटे-छोटे लट्टू जलते हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि बिजलीघर केवल इन्हीं लट्टुओं तक सीमित है। उसी बिजलीघर से भारी क्षमता वाले बड़े-बड़े औद्योगिक-डायनैमो चलाये जा सकते हैं। इसी प्रकार भगवान् के अवतार सीमित शक्ति का ही प्रदर्शन करते हैं, क्योंकि उस समय उतनी ही शक्ति की आवश्यकता होती है।
उदाहरणार्थ, भगवान् परशुराम ने विरोधी क्षत्रियों का इक्कीस बार संहार करके, तथा भगवान् नृसिंह ने अत्यन्त शक्तिशाली नास्तिक हिरण्यकशिपु को मार करके, असामान्य ऐश्वर्य का प्रदर्शन किया। हिरण्यकशिपु इतना शक्तिशाली था कि उसके मौंहें टेड़ी करने से हीे काँपने लगते थे। उच्च लोकों के देवता आयु, सौंदर्य, सम्पत्ति, साज-सामग्री तथा अन्य मामलों में, यहाँ के धनी से धनी मनुष्यों से बढ़-चढ़ कर होते हैं। तो भी वे सब हिरण्यकशिपु से भयभीत थे। इस प्रकार हम कल्पना कर सकते हैं कि इस भौतिक जगत् में हिरण्यकशिपु कितना शक्तिशाली था। किन्तु भगवान् नृसिंह ने अपने नाखूनों से इस हिरण्यकशिपु के भी खण्ड-खण्ड कर दिये। इसका अर्थ यह हुआ कि भौतिक दृष्टि से कोई चाहे कितना ही बलशाली क्यों न हो, वह भगवान् के नाखूनों की शक्ति का सामना नहीं कर सकता। इसी प्रकार जामदग्न्य ने समस्त अवज्ञाकारी राजाओं को उनके राज्यों में जाकर मारने की दैवी शक्ति दिखलाई। भगवान् के शक्त्यावेश अवतार नारद तथा पूर्णांश अवतार वराह तथा अप्रत्यक्ष आवेश अवतार भगवान् बुद्ध ने जनसमूह में श्रद्धा उत्पन्न की। राम तथा धन्वन्तरि अवतारों ने उनकी ख्याति का तथा बलराम, मोहिनी एवं वामन ने उनके सौंदर्य का प्रदर्शन किया। दत्तात्रेय, मत्स्य, कुमार तथा कपिल ने उनके दिव्य ज्ञान का प्रदर्शन किया। नर तथा नारायण ऋषियों ने उनके त्याग का प्रदर्शन किया। इस प्रकार भगवान् के समस्त अवतारों ने, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न लक्षणों का प्रदर्शन किया, लेकिन आदि भगवान् कृष्ण ने भगवान् के सम्पूर्ण लक्षण प्रकट किये। इस प्रकार इसकी पुष्टि होती है कि वे अन्य समस्त अवतारों के उद्गम हैं। और उनका सबसे असामान्य लक्षण तो वह था, जिसमें उन्होंने गोपियों के साथ अपनी लीलाओं के रूप में अपनी अन्तरंगा शक्ति का प्रदर्शन किया। गोपियों के साथ उनकी लीलाएँ उनके दिव्य अस्तित्व, आनन्द तथा ज्ञान की स्थिति को प्रकट करने वाली हैं, यद्यपि ये ऊपर से प्रणय (काम) जैसी लगती हैं। गोपियों के साथ उनकी लीलाओं के प्रति विशेष आसक्ति का कभी गलत अर्थ नहीं लगाना चाहिए। भागवत के दशम स्कंध में इन लीलाओं का वर्णन है। गोपियों के साथ कृष्ण की लीलाओं के दिव्य स्वरूप को समझ पाने के लिए किसी भी जिज्ञासु को यह भागवत अन्य नौ स्कंधों द्वारा धीरे-धीरे अग्रसर कराता है।
श्रील जीव गोस्वामी के कथनानुसार यह शास्त्रसम्मत है कि भगवान् कृष्ण अन्य समस्त अवतारों के उद्गम हैं। ऐसा नहीं है कि भगवान् कृष्ण के अवतार का कोई स्रोत है। परम सत्य के सारे लक्षण भगवान् श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में पूर्ण रूप से निहित हैं और भगवद्गीता में भगवान् स्पष्ट घोषित करते हैं कि उनके समान या उनसे बढक़र कोई सत्य नहीं है। इस श्लोक में स्वयम् शब्द का प्रयोग इसकी पुष्टि करने के लिए किया गया है कि भगवान् कृष्ण स्वयं अपने सिवा अन्य कोई स्रोत नहीं है। यद्यपि अन्य स्थानों में अवतारों को उनके कार्यों के कारण भगवान् कहा गया है, किन्तु उन्हें कहीं भी पूर्ण पुरुषोत्तम नहीं कहा गया। इस श्लोक में स्वयम् शब्द परम श्रेय के रूप में उनकी श्रेष्ठता का सूचक है।
अन्तिम आश्रय रूप कृष्ण एक एवं अद्वय हैं। उन्होंने अपना विस्तार विभिन्न अंशों, कलाओं तथा कणों के रूप में स्वयं-रूप, स्वयं-प्रकाश, तद्-एकात्मा, प्राभव, वैभव, विलास, अवतार, आवेश तथा जीव के नाम से कर रखा है; ये सभी अनगिनत शक्तियों से युक्त हैं जो तत्सम्बन्धी स्वरूपों एवं व्यक्तित्वों के लिए सर्वथा उपयुक्त होती हैं। अध्यात्म विषय के पंडितों ने अन्तिम आश्रय स्वरूप कृष्ण का अत्यन्त सावधानी से अध्ययन करके, उनके ६४ मुख्य गुण बताये हैं। भगवान् के सारे अंशो या श्रेणियों में इन गुणों का कुछ प्रतिशत ही पाया जाता है। लेकिन श्रीकृष्ण में ये गुण शत-प्रतिशत पाये जाते हैं। स्वयं-प्रकाश और तद् एकात्मा से लेकर अवतार की श्रेणियों तक के उनके निजी विस्तार, जो सब विष्णुतत्व हैं, उनमें ९३ प्रतिशत तक ये दिव्य गुण पाये जाते हैं। शिवजी में, जो न तो अवतार हैं, न आवेश और न ही इन दोनों के बीच आते हैं, उनमें लगभग ८४ प्रतिशत गुण पाये जाते हैं। किन्तु जीवन की विभिन्न अवस्थाओं वाले जीवों में ये गुण ७८ प्रतिशत तक पाये जाते हैं। इस भौतिक जगत की बद्ध अवस्था में जीव में ये गुण बहुत थोड़ी मात्रा में पाये जाते हैं और पवित्र जीवों में इनकी मात्रा भिन्न हो सकती है। जीवों में सर्वाधिक पूर्ण जीव ब्रह्मा हैं, जो एक ब्रह्माण्ड के अधिष्ठाता हैं। उनमें ७८ प्रतिशत तक ये गुण पूर्ण मात्रा में पाये जाते हैं। अन्य देवताओं में इन गुणों की मात्रा कम होती जाती है और मनुष्य में तो अत्यल्प मात्रा पाई जाती है। मनुष्य जीवन की पूर्णता का मानदण्ड यह है कि वह इन गुणों को ७८ प्रतिशत तक पूर्ण मात्रा में बढ़ाये। जीव में कभी भी शिव, विष्णु या भगवान् कृष्ण के समान गुण नहीं आ सकते। कोई भी जीव ७८ प्रतिशत गुणों को पूर्ण रूप से विकसित कर, दिव्यता प्राप्त कर सकता है पर वह कभी भी शिव, विष्णु या कृष्ण नहीं बन सकता। हाँ, कालक्रम में वह ब्रह्मा बन सकता है। वे दैवी जीव, जो आध्यात्मिक आकाश के ग्रहों के निवासी होते हैं, वे हरिधाम तथा महेशधाम जैसे विभिन्न आध्यात्मिक ग्रहों में भगवान् के सनातन साथी होते हैं। सब धामों के ऊपर कृष्ण का धाम है, जो कृष्णलोक या गोलोक वृन्दावन कहलाता है। जो जीव अपने में ७८ प्रतिशत गुण पूर्ण मात्रा में विकसित कर लेता है, वह इस भौतिक शरीर को त्यागने के पश्चात् कृष्णलोक जाने का भागी बन जाता है।
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