मूर्ख मनुष्य अपने अल्प ज्ञान के कारण भगवान् के रूपों, नामों तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को नहीं जान सकते, क्योंकि वे तो किसी नाटक में एक पात्र की तरह कार्य कर रहे होते हैं। न ही ऐसे मनुष्य अपने तर्क या अपनी वाणी द्वारा भी ऐसी बातों को व्यक्त कर सकते हैं।
तात्पर्य
परम सत्य के दिव्य स्वभाव का कोई भी ठीक से वर्णन नहीं कर सकता। इसीलिए कहा जाता है कि वे मन तथा वाणी की अभिव्यक्ति से परे हैं। फिर भी कुछ ऐसे अल्पज्ञ व्यक्ति हैं, जो अपने अपूर्ण तर्कवितर्क तथा परमेश्वर के कार्यों के दोषपूर्ण वर्णन द्वारा परम सत्य को जानना चाहते हैं। एक साधारणतम व्यक्ति के लिए भगवान् के कर्म, प्राकट्य तथा तिरोधान, भगवान् के नाम, रूप, साज-सामान, व्यक्तित्व तथा उनसे सम्बन्धित सारी वस्तुएँ रहस्यमय (गुह्य) होती हैं। भौतिकतावादियों की दो कोटियाँ हैं—एक सकाम कर्मियों की तथा दूसरी मीमांसकों की। सकाम कर्मियों को परम सत्य की तनिक भी जानकारी नहीं होती और मीमांसक सकाम कर्मों से निराश होकर परम सत्य की ओर मुख मोड़ते हैं तथा शुष्क चिन्तन द्वारा उन्हें जानने का प्रयास करते हैं। ऐसे समस्त लोगों के लिए परम सत्य उसी तरह रहस्यमय बने रहते हैं, जिस प्रकार बच्चों को जादूगर के करतब। परम पुरुष की जादूगरी से छले जाकर अभक्तगण सदैव अज्ञान में पड़े रहते हैं, भले ही वे सकाम कर्म तथा तर्कवितर्क में कितने ही निपुण क्यों न हों। ऐसे सीमित ज्ञान के द्वारा वे अध्यात्म के गुह्य क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पाते। तर्कवादी सकाम कर्मियों से थोड़े बेहतर होते हैं, लेकिन वे भी मोह के चंगुल में रहने से, यह मान लेते हैं कि जिस वस्तु में कोई रूप, नाम, तथा कर्म हो, वह भौतिक शक्ति से उत्पन्न है। ऐसे लोगों के लिए परमात्मा रूपहीन, नामहीन तथा कर्महीन हैं। और चूँकि ऐसे मीमांसक (ज्ञानी) भगवान् के दिव्य नाम तथा रूप की बराबरी संसारी नामों तथा रूपों से करते हैं, अत: वे सचमुच अज्ञानी हैं। इतने अल्पज्ञान से परम पुरुष की वास्तविक प्रकृति तक नहीं पहुँचा जा सकता। जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है, भगवान् सदैव, यहाँ तक कि भौतिक जगत के भीतर रहते हुए भी दिव्य अवस्था में रहते हैं। लेकिन अज्ञानी व्यक्ति भगवान् को विश्व की एक महान विभूति मानते हैं और इस प्रकार वे माया द्वारा भ्रमित होते रहते हैं।
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