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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 3: समस्त अवतारों के स्रोत : कृष्ण  »  श्लोक 38
 
 
श्लोक  1.3.38 
स वेद धातु: पदवीं परस्य
दुरन्तवीर्यस्य रथाङ्गपाणे: ।
योऽमायया सन्ततयानुवृत्त्या
भजेत तत्पादसरोजगन्धम् ॥ ३८ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वे ही; वेद—जान सकते हैं; धातु:—स्रष्टा की; पदवीम्—महिमा को; परस्य—अध्यात्म का; दुरन्त-वीर्यस्य— अत्यन्त शक्तिशाली का; रथ-अङ्ग-पाणे:—भगवान् कृष्ण का, जो हाथ में रथ का चक्र धारण करते हैं; य:—जो; अमायया—किसी हिचक के बिना; सन्ततया—निरन्तर; अनुवृत्त्या—अनुकूल होकर; भजेत—सेवा करता है; तत्- पाद—उनके चरणों की; सरोज-गन्धम्—कमल की महक ।.
 
अनुवाद
 
 जो बिना हिचक के अबाध रूप से अपने हाथों में रथ का चक्र धारण करने वाले भगवान् के चरणकमलों की अनुकूल सेवा करता है, वही इस जगत के स्रष्टा की पूर्ण महिमा, शक्ति तथा दिव्यता को समझ सकता है।
 
तात्पर्य
 केवल शुद्ध भक्त ही सकाम कर्मों एवं मानसिक तर्क के फलों से मुक्त होने के कारण, भगवान् कृष्ण के दिव्य नाम, रूप तथा उनकी लीलाओं को समझ पाते हैं। इन शुद्ध भक्तों को भगवान् की अनन्य भक्ति से कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं प्राप्त करना होता। वे बिना हिचक के भगवान् की अनन्य सेवा करते हैं। इस सृष्टि में प्रत्येक प्राणी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भगवान् की सेवा कर रहा है। भगवान् के इस नियम से कोई छूटा नहीं है। जो लोग भगवान् के भ्रामक प्रतिनिधि द्वारा बाध्य होकर भगवान् की अप्रत्यक्ष रूप से सेवा कर रहे हैं, वे भगवान् की प्रतिकूल ढंग से सेवा करते हैं। किन्तु जो उनके प्रिय प्रतिनिधि के निर्देशन में प्रत्यक्ष सेवा करते हैं, वे उनकी अनुकूल सेवा करते हैं। ऐसे अनुकूल सेवक भगवद्भक्त ही होते हैं और वे भगवत्कृपा से अध्यात्म के गुह्य क्षेत्र में प्रवेश कर पाते हैं। लेकिन मनोधर्मी सदा अंधकार में ही पड़े रहते हैं। जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है, भगवान् स्वयं शुद्ध भक्तों को उनकी निरन्तर प्रेमाभक्ति के कारण साक्षात्कार के मार्ग की ओर ले जाते हैं। भगवान् के धाम में प्रवेश पाने का यही रहस्य है। वहाँ प्रवेश पाने के लिए सकाम कर्म तथा तर्कवितर्क की कोई योग्यताएँ नहीं हैं।
 
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