अथ—इस प्रकार; इह—इस संसार में; धन्या:—सफल; भगवन्त:—पूर्ण रूप से ज्ञात; इत्थम्—ऐसा; यत्—जो; वासुदेवे—भगवान् के प्रति; अखिल—सम्पूर्ण; लोक-नाथे—समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी के प्रति; कुर्वन्ति—प्रेरित करते हैं; सर्व-आत्मकम्—शत प्रतिशत; आत्म—आत्मा; भावम्—आह्लाद; न—कभी नहीं; यत्र—जहाँ; भूय:—फिर; परिवर्त:—पुनरावृत्ति; उग्र:—भयानक ।.
अनुवाद
इस संसार में केवल ऐसी जिज्ञासाओं द्वारा ही मनुष्य सफल तथा पूर्णत: ज्ञात हो सकता है, क्योंकि ऐसी जिज्ञासाओं से अखिल ब्रह्माण्डों के स्वामी भगवान् के प्रति दिव्य आह्लादकारी प्रेम उत्पन्न होता है और जन्म-मृत्यु की घोर पुनरावृत्ति से शत प्रतिशत प्रतिरक्षा की गारंटी प्राप्त होती है।
तात्पर्य
यहाँ पर सूत गोस्वामी द्वारा शौनक आदि मुनियों की जिज्ञासाओं की प्रशंसा उनकी दिव्य प्रकृति के आधार पर की गई है। जैसाकि पहले कहा जा चुका है, केवल भगवद्भक्त ही उनको एक समुचित सीमा में जान पाते हैं, अन्य कोई नहीं जान पाता, अतएव भक्तगण समस्त आध्यात्मिक ज्ञान से पूर्ण रूप से ज्ञात होते हैं। परम सत्य का अन्तिम पड़ाव भगवान् ही हैं। निराकार ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा भगवान् के ज्ञान में सम्मिलित हैं। अत: जो भगवान् को जान सकता है, वह उनके विषय में, उनकी नाना शक्तियों तथा उनके अंशों के विषय में स्वत: ही सब कुछ जान लेता है। अतएव भक्तों को परम भाग्यशाली (सफल) कहा गया है। भगवान् का शतप्रतिशत भक्त जन्म-मरण के चक्र के भयानक भौतिक तापों के प्रति निश्चेष्ट रहता है।
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