भक्तगण अपने विमल (पूर्ण) नेत्रों से उस पुरुष के दिव्य रूप का दर्शन करते हैं जिसके हजारों-हजार पाँव, जंघाएँ, भुजाएँ तथा मुख हैं और सबके सब अद्वितीय हैं। उस शरीर में हजारों सिर, आँखें, कान तथा नाक होते हैं। वे हजारों मुकुटों तथा चमकते कुण्डलों से अलंकृत हैं और मालाओं से सजाये गये हैं।
तात्पर्य
हम अपनी वर्तमान भौतिक इन्द्रियों से दिव्य भगवान् को रंचमात्र भी नहीं देख पाते। हमारी वर्तमान इन्द्रियों को भक्तिमय सेवा की प्रक्रिया द्वारा ठीक करने की आवश्यकता है, तभी भगवान् स्वयं हमें दर्शन देते हैं। भगवद्गीता में पुष्टि की गई है कि शुद्ध भक्तिमय सेवा द्वारा ही दिव्य रूप भगवान् के दर्शन किये जा सकते हैं। इस तरह वेदों में भी पुष्टि हुई है कि केवल भक्ति ही मनुष्य को भगवान् की ओर ले जा सकती है और केवल भक्ति से भगवान् प्रकट होते हैं। ब्रह्म-संहिता में भी कहा गया है कि भगवान् सदैव उन भक्तों को दिखते हैं, जिनकी आँखों में भक्ति रूपी अंजन लगा रहता है। अतएव हमें भगवान् के दिव्य रूप की जानकारी ऐसे व्यक्तियों से प्राप्त करनी होती है, जिन्होंने भक्ति के अंजन से रंजित आँखों से उनका दर्शन किया है। इस भौतिक जगत में भी हम वस्तुओं को सदा अपनी आँखों से नहीं देखते; कभी-कभी हम उन लोगों के अनुभव से देखते हैं जिन्होंने उन्हें पहले से देखा है या कुछ काम किया है। यदि दुन्यवी वस्तुओं के अनुभव किये जाने की यह विधि है, तो फिर दिव्य विषयों में यह पूरी तरह लागू होती है। अतएव केवल धैर्य तथा दृढ़ता से ही परम सत्य सम्बन्धी दिव्य विषय तथा उनके विविध रूपों के सम्बन्ध में अनुभूति प्राप्त की जा सकती है। नवदीक्षितों के लिए वे स्वरूपहीन हैं, किन्तु दक्ष सेवक के लिए वे दिव्य रूप से युक्त होते हैं।
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