श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 3: समस्त अवतारों के स्रोत : कृष्ण  »  श्लोक 42
 
 
श्लोक  1.3.42 
स तु संश्रावयामास महाराजं परीक्षितम् ।
प्रायोपविष्टं गङ्गायां परीतं परमर्षिभि: ॥ ४२ ॥
 
शब्दार्थ
स:—व्यासदेव के पुत्र ने; तु—पुन:; संश्रावयाम् आस—सुनाया; महा-राजम्—राजा; परीक्षितम्—परीक्षित को; प्राय- उपविष्टम्—अन्न-जल रहित मृत्यु के लिए बैठे; गङ्गायाम्—गंगा नदी के तट पर; परीतम्—घिरे हुए; परम-ऋषिभि:— बड़े-बड़े ऋषियों द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 व्यासदेव के पुत्र शुकदेव गोस्वामी ने, अपनी पारी में महाराज परीक्षित को भागवत सुनाई जो तब निर्जल तथा निराहार रहकर मृत्यू की प्रतीक्षा करते हुए गंगा नदी के तट पर ऋषियों से घिरे बैठे हुए थे।
 
तात्पर्य
 सारे दिव्य सन्देश शिष्य परंपरा की शृंखला से उचित ढंग से प्राप्त किये जाते हैं। यह शिष्य-शृंखला परम्परा कहलाती है। जब तक भागवत को या अन्य किसी वैदिक ग्रंथ को परम्परा-पद्धति से ग्रहण नहीं किया जाता है, तब तक उसे प्रामाणिक नहीं माना जाता। व्यासदेव ने यह सन्देश शुकदेव गोस्वामी को प्रदान किया और शुकदेव गोस्वामी से इसे सूत गोस्वामी ने प्राप्त किया। अत: भागवत का सन्देश सूत गोस्वामी या उनके प्रतिनिधि से ही प्राप्त करना चाहिए, किसी अप्रासंगिक व्याख्याकार से नहीं।

महाराज परीक्षित को अपनी मृत्यु की सूचना समय से प्राप्त हो गई थी, अत: उन्होंने अपना राज्य तथा परिवार छोड़ दिया और आमरण उपवास करते हुए वे गंगा के किनारे जा बैठे। उनकी राजसी स्थिति के कारण सारे ऋषि, मुनि, चिन्तक, योगी आदि वहाँ पहुँच गये। उन सबों ने उन्हें उनके तात्कालिक कर्तव्य के बारे में कई सुझाव दिये और अन्त में यह तय हुआ कि वे शुकदेव गोस्वामी से भगवान् कृष्ण के विषय में सुनें। इस प्रकार उन्हें भागवत की कथा सुनायी गयी।

मायावादी दर्शन के उपदेशक तथा परब्रह्म के निर्गुण रूप के समर्थक श्रीपाद शंकराचार्य ने भी संस्तुति की है कि मनुष्य को भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की शरण ग्रहण करनी चाहिए; क्योंकि वाद-विवाद करने से किसी लाभ की आशा नहीं है। उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप में यह स्वीकार किया कि वेदान्त-सूत्र की उन्होंने जो अलंकारमयी वैयाकरणिक व्याख्या की है, उससे मृत्यु के समय कोई सहायता नहीं मिल सकती। आसन्न मृत्यु के निर्णायक समय पर मनुष्य को गोविन्द नाम का जप करना चाहिए। यही सभी बड़े-बड़े अध्यात्मवादियों का कहना है। बहुत काल पूर्व शुकदेव गोस्वामी ने इस सत्य का कथन किया कि अन्त समय में मनुष्य को नारायण का स्मरण करना चाहिए। यही समस्त आध्यात्मिक कार्यों का सार है। इसी शाश्वत सत्य के पालन हेतु महाराज परीक्षित ने श्रीमद्भागवत सुना और सुयोग्य शुकदेव गोस्वामी ने उन्हें इसे सुनाया। भागवत सन्देश के वक्ता तथा श्रोता दोनों ही एक ही माध्यम से मुक्ति पा गए।

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥