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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 3: समस्त अवतारों के स्रोत : कृष्ण  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  1.3.8 
तृतीयमृषिसर्गं वै देवर्षित्वमुपेत्य स: ।
तन्त्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्यं कर्मणां यत: ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
तृतीयम्—तीसरा; ऋषि-सर्गम्—ऋषिसर्ग; वै—निश्चय ही; देवर्षित्वम्—देवताओं में ऋषि का अवतार; उपेत्य—स्वीकार करके; स:—उन्होंने; तन्त्रम्—वेदों का भाष्य; सात्वतम्—विशेष रूप से भक्ति के लिए; आचष्ट—संग्रह किया; नैष्कर्म्यम्—निष्काम्; कर्मणाम्—कर्म का; यत:—जिससे ।.
 
अनुवाद
 
 ऋषियों के सर्ग में, भगवान् ने देवर्षि नारद के रूप में, जो देवताओं में महर्षि हैं, तीसरा शक्त्यावेश अवतार ग्रहण किया। उन्होंने उन वेदों का भाष्य संकलित किया जिनमें भक्ति मिलती है और जो निष्काम कर्म की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् के शक्त्यावेश अवतार महर्षि नारद सर्म्पूण जगत में भक्तिमय सेवा का प्रचार करते हैं। ब्रह्माण्ड में सर्वत्र विभिन्न लोकों में तथा समस्त योनियों के सारे बड़े-बड़े भगवद्भक्त उनके शिष्य हैं। श्रीमद्भागवत के संकलनकर्ता श्रील व्यासदेव भी उनके शिष्यों में से एक हैं। नारद-पञ्चरात्र, जो भगवद्भक्ति विषयक वेदों का भाष्य है, उन्हीं के द्वारा रचित है। यह नारद-पञ्चरात्र कर्मियों को कर्म-बन्धन से मुक्ति दिलाने की शिक्षा देता है। बद्धजीव अधिकांश सकाम कर्म के प्रति आसक्त होते हैं, क्योंकि वे अपने श्रम द्वारा जीवन का आनन्द भोगना चाहते हैं। यह सारा ब्रह्माण्ड समस्त योनियों के सकाम कर्मियों से भरा पड़ा है। सभी प्रकार की आर्थिक विकास-योजनाएँ इन सकाम कर्मों में सम्मिलित हैं। किन्तु प्रकृति का नियम यह है कि प्रत्येक क्रिया की परिणामकारी प्रतिक्रिया होती है और कर्म करने वाला अच्छे या बुरे कर्मफल से बँधा होता है। अच्छे कर्म का फल तदनुरूप भौतिक सम्पन्नता है, जबकि बुरे कर्म का फल तदनुरूप भौतिक कष्ट होता है। फिर भी भौतिक दशाएँ चाहे वे तथाकथित सुख हों या दुख हों, अन्तत: दुख का ही कारण बनते हैं। मूर्ख भौतिकतावादियों को यह पता ही नहीं होता कि मुक्त अवस्था में शाश्वत सुख कैसे प्राप्त करना चाहिए। श्री नारद इन मूर्ख सकाम कर्मीयों को बताते हैं कि किस तरह वास्तविक सुख प्राप्त करना चाहिए। वे संसार के रुग्ण मनुष्यों को निर्देश देते हैं कि किस प्रकार उनके वर्तमान पेशे से उनका आध्यात्मिक उत्थान हो सकता है। वैद्य दूध की बनी वस्तु खाने से अपच से पीडि़त रोगी को दूध से ही बना दही खाने का उपचार बताता है। अत: रोग का कारण तथा उसका उपचार एक ही हो सकता है, किन्तु उपचार करने वाले को नारद के समान ही कुशल वैद्य होना चाहिए। भगवद्गीता का भी यही उपदेश है कि अपने श्रम के फल से भगवान् की सेवा करनी चाहिए। इससे ‘नैष्कर्म्य’ या मुक्ति का पथ सुलभ हो सकेगा।
 
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